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________________ १५४ संपालि अंकनिसरणे पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाणफल विवागाई, पणपन्नं अज्झयणाई पावफल विवागाई, छत्तीसं च अपुढवागरणाई वागरित्ता पहाणं नाम अज्झयणं विभावेमाणे, कालगए।" उपर्युक्त सूत्र पाठ की आचार्य जिनप्रभ निम्नप्रकार से टीका करते हैं___ "पर्यङ्कः-पद्मासनं तत्र निषण्ण-उपविष्टः, पंचपंचाशत्सु कल्याणफलविपाकाध्ययनेष्वेकं मरुदेवाध्ययनं विभावमाणे इति विभावयन्-प्ररूपयन् ।” मूल पाठ में ५५-५५ कल्याण फल-पाप फल विपाक अध्ययनों का निरूपण करके ३६ अपृष्ट-प्रश्नोत्तरों के बाद प्रधानाध्ययन के निरूपण की बात है तब पंजिकाकार ५५ कल्याणफल विपाकाध्ययनों में से ही एक अध्ययन का निरूपण करने का कहते हैं, यह मूल सूत्र से बिल्कुल विरुद्ध है, मूल में पुण्य पापों का फल बताने वाले एक सौ दस अध्ययनों का निरूपण कर ३६ अपृष्ट प्रश्नोत्तरों के बाद प्राधानाध्ययन अथवा मरुदेवाध्ययन के निरूपण की बात है, तब जिन प्रभसूरिजी पुण्य फल बताने वाले अध्ययनों में से ही एक अध्ययन का विभावन करते हुए भगवान् को निर्वाण प्राप्त करवाते हैं, यहाँ प्रश्न होता है कि जिनप्रभसूरि के मत से पाप फल विपाकध्ययनों का तथा अपृष्ट प्रश्नोत्तरों का भगवान् ने चिंतन नहीं किया था? कुछ भी हो श्री जिनप्रभसूरिजी का यह प्रमाद अनेक कल्प टीकाकारों को मार्ग भुलाने वाला हुआ है । निर्वाण के बाद सांवत्सरिक चातुर्मासिक प्रतिक्रमणादि की तिथि के परिवर्तन से संबंध रखने वाली चार गाथाएँ पंजिका में लिखी हैं और इन्हें तीर्थोग्दारादि का होना बताया है, यहां आपने "तित्थोगाली" इस नाम का संस्कृत रूप “तीर्थोग्दार" लिखा है जो यथार्थ नहीं "तित्थोगाली" का संस्कृत रूप "तीर्थावकाली' होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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