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इस अन्तर्वाच्य का मंगलाचरण निम्न प्रकार का है"पुत्राः पंच मति श्रताऽवधिमनः कैवल्य संज्ञा विभोस्तन्मध्ये-श्रुतनन्दनो भगवता संस्थापितः स्वे पदे । अंगोपांगमयः सपुस्तकगजाध्यारोहलन्धोदयः, सिद्धान्ताभिधभूपतिर्गण धरै मन्यश्चिरं नंदतात || १ ||”
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मंगलाचरण करने के बाद लेखक ने “पुरिम चरिमाण कप्पो " यह गाथा लिखकर कल्पसूत्र के विषय का प्रारम्भ किया है ।
अन्यान्य टीकाकारों ने जिस प्रकार से कल्पारंभ के पूर्व में पीठिका के रूप में प्रासंगिक विषयों का निरूपण किया है, इस अन्तर्वाच्य के लेखक ने भी कुछ विस्तार से लिखा है, कल्प के प्रारम्भ में महावीर के षट् कल्याणकों की चर्चा की है या नहीं यह कहना कठिन है, क्योंकि इस विषय के प्रतिपादक पत्र बिल्कुल चिपके हुए हैं, परन्तु इतना निश्चित है कि पिछले खरतरगच्छीय लेखकों ने कल्प-व्याख्यान की पद्धतियां निर्मित की हैं वैसी यह नहीं है, अन्य कल्पान्तर्वाच्यों की तरह ही इसमें भी वाचनाओं का विभाग नहीं बताया है, अन्त में नव व्याख्यानों के पृथक् पृथक् विभाग करके पढ़ने के लिए लिखा है, जो कथन निम्न प्रकार से है"पयुषणाकल्प प्रारंभे" " पुरिम चरिमे" इत्यादि पीठिका पूर्व यावच्छक्रः- स्तौति तावत्कथनीयं ॥ १ ॥ शक्रस्तव - गर्भावतारसंचाराः ||२|| स्वप्नविचार - गर्भस्थाभिग्रहाः ||३|| जन्मोत्सव - क्रीड़ा - कुटुम्ब - विचाराः ||४|| दीक्षा -ज्ञानपरिवार- मोक्षाः ||५|| पार्श्वनेभ्यंतराणि ॥६॥ आदिनाथचरित्रस्थविरावल्यः ||७|| कालिकाचार्य कथा ॥ ८ ॥ सामाचारी मिथ्यादुष्कृतं ॥६॥ श्रीरस्तु ।" अर्थात् -- ' १ - पुरिम चरिमाण कप्पो इत्यादि पीठिका से लेकर शकस्तव पर्यन्त का पहला व्याख्यान करना ।'
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२ - शक्रस्तव पूरण होने के उपरान्त गर्भावतार और गर्भ परावर्त पर्यन्त दूसरा ।”
३ - स्वप्न विचार और गर्भावास में अभिग्रह ग्रहण पर्यन्त तीसरा ।
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