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________________ १४८ र्वाच्यकार ने उपर्युक्त छः स्थिविरों के तीन युगलों को पट्टधर लिखा है, इसका तात्पर्य यह निकला कि प्रस्तुत अन्तर्वाच्यकार के मत से स्थविरों की पट्टावली में तीन नम्बर घटेंगे, तब दोनों को जुदा-जुदा पट्टधर मानने वालों के मत से पट्टावली में तीन नाम बढेंगे, यह बात आचार्य मुनि सुन्दर सूरि कृत गुर्वावली में भी सूचित की गयी है। इस द्वितीय कल्पान्तवाच्य की अंतिम पंक्तियां निम्न प्रकार की है, पाठक गण पढ़कर जान सकेंगे कि इस ग्रन्थ की मूल प्रति किस की लिखी हुई और कितनी प्राचीन है "इति श्री अन्तर्वाच्यं समाप्तमिति ।" श्रीरस्तु शुभं भवतु । यादशं पुस्तके दष्टं, तादशं लिखितं मया । यदि शुद्धमशुद्ध वा मम, दोषो न दीयते । श्रीरस्तु लेखक-पाठकयोः । पंडितश्री ५ श्री सीपागणी शिष्यगणी देवविजयवाचनार्थं संवत् १६४५ वर्षे कल्याणमस्तु ।" ३---तीसरा कल्पान्तर्वाच्य-पाठक-रत्नचन्द्र शिष्य भक्तिलाभ का बनाया हुआ है। यह अन्तर्वाच्य पिछले दो अन्तर्वाच्यों से बड़ा है, पत्र संख्या ५३ है, जिनमें अनुमानित श्लोक संख्या २३०० से अधिक होगी, पुस्तक स्याही की खराबी से पानों के चिपक जाने से पर्याप्त मात्रा में बिगड़ गया है, फिर भी इसका आदि तथा अन्त का भाग विशेष नहीं बिगडा, पुस्तक पूर्ण रूप से तो नहीं पढा जाता फिर भी इससे जो बातें ज्ञात हुई हैं उनकी चर्चा करना जरूरी समझते हैं, पाठक रतनचन्द्र किस गच्छ के थे, यह ज्ञात नहीं हुमा इस नाम के विद्वान् तपागच्छ, खरतरगच्छ और पार्श्वचन्द्रगच्छ इन तीनों गच्छों में हुए हैं, तथापि विशेष परिचय प्राप्त न होने से निर्णय करना कठिन है, वाच्यकार का "भक्तिलाभ” यह नाम खरतरगच्छ के साधुओं के नाम से मिलता जुलता है, इससे अधिक इस विषय में लिखना अटकल मात्र होगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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