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________________ १४७ दृष्टान्त आदि कथा दृष्टान्त संस्कृत श्लोकों में दिए हैं, स्थविरावली के अन्त में इसमें भी कतिपय स्थविरों की नामावली दी है, जिसमें अन्तिम नाम श्री हेमचन्द्र सूरि तथा मलयगिरि सूरिजी के हैं इससे इसका निर्माण काल विक्रम की १३वीं शती के बाद का है, इसमें भी सामाचारी प्रकरण में दिए हुए जैन श्रमणों के ग्रहण योग्य प्रासुक जलों की चर्चा की है और सौवीर, अवस्रावण, उष्णजल आदि ग्राह्य बताये हैं, काथक कसेलक आदि मृदु रस वाले पदार्थों से सचित्त जल देरी से अचित्त होते हैं और अचित्त बनने के बाद भी जल्दी सचित्त हो जाने का संभव बताकर कसेलकादि जन्य प्रासुक जल ग्राह्य मानने में अपनी असम्मति बताई है, इस निरूपण से जाना जा सकता है कि इसका प्रणेता भी कोई तपागच्छीय विद्वान् है और उनका समय विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी का हो सकता है, पहले का नहीं। - इस कल्पान्तर्वाच्य में गणधरवाद में जो जो सुभाषित श्लोक, अन्य प्रसंगों पर आनेवाले सुभाषित तथा वर्णन के पद्य पिछली टीकाओं में आते हैं, वे सभी इसमें विद्यमान हैं, इससे इतना तो निश्चित है कि उपाध्याय धर्मसागर तथा अनेक परवर्ती कल्पटीकाकारों ने इस अन्तर्वाच्य का उपजीवन किया है ।। स्थविरों के समय निरूपण में और अन्य प्रसंगों में इसमें कुछ विशेषता देखी जाती है, इस अन्तर्वाच्य में "प्रभव'' की दीक्षा जम्बू स्वामी के साथ होने का लिखा है, श्री यशोभद्रसूरि ने अपने दोनों शिष्य श्री भद्रबाहु और श्री संभूतविजयजी को पट्टधर बनाया था, ऐसा लिखा है, श्री आर्य स्थूलभद्रजी ने भी अपने शिष्य महागिरि तथा सुहस्ती को अपना पट्ट देकर वीरात् २१५ वर्ष में स्वर्गवासी होना लिखा है, आर्य महागिरि तथा सुहस्ती ने अपने पट्ट सुस्थित सुप्रतिबुद्ध नामक दो शिष्यों को देकर स्वर्गवास प्राप्त करने का लिखा है, कई पट्टावलीकारो ने भद्रबाहु, सम्भूतविजय, आर्यमहागिरि, आर्य सुहस्ती, सुस्थित, सुप्रतिबुद्ध इन छ: आचार्यों को भिन्न भिन्न पट्टधर मानकर भिन्न भिन्न समय लिखा है परन्तु प्रस्तुत कल्पान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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