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________________ १४६ ऊहापोह चल पड़ा था, तपागच्छ के आचार्यों का कथन था कि आचारांग सूत्रोक्त अथवा अन्य सूत्रों में बताये हुए प्रासुक धावन जल मिले तो लेना, अन्यथा उष्णजल ही आज के समय में साधुओं के लिए ग्राह्य है, तब खरतरगच्छ के प्राचार्यों का आग्रह यह था कि उष्ण जल के प्रचार से हिंसा बढ़ती है, उधर धावन जल पीने में श्रावक वर्ग घृणा करता है, इसलिए " कत्थे" तथा "कसेलक" के चूर्ण से अचित्त किया गया जल अचित्त-भोजी श्रावक भी पी सकते हैं और साधुओं को भी ऐसा जल प्रचुर मात्रा में मिल सकता है, खरतरगच्छ वालों की इस मान्यता का उनके विहार क्षेत्र मारवाड़ आदि में काफी प्रचार हो गया था, अचित्त भोजी श्रावक लोग जब काथ कसेल से बना हुआ जल पीते थे, तब साधुओं को निर्दोष उष्ण जल कहां से मिलता ? इस उष्ण जल के प्रभाव से तपागच्छ के आचार्य श्री सोम प्रभसूरिजी द्वारा अपने साधुओं को मारवाड़ की तरफ विहार न करने की आज्ञा तक निकालनी पड़ी थी, लगभग उसी समय के आसपास में खरतरगच्छीय आचार्य जिनप्रभसूरि ने एक " तपोट-मत- कुट्टन" नामक श्लोकबद्ध प्रकरण लिखकर गृहस्थों को गर्म जल पीने का संबंध में तपागच्छ के प्राचार्यों को खूब कोसा है, इन सब बातों का विचार करने से यही प्रतीत होता है कि प्रस्तुत कल्पान्तर्वाच्य उष्ण जल और कसेलक जल के झगड़े के काल में निर्मित हुआ है, जो समय विक्रमीय चौदहवीं शती का मध्य भाग है, क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो कल्पान्तर्वाच्यकार को जल संबंधी चर्चा में उतरना न पड़ता, चर्चा में लेखक ने शास्त्रोक्त सभी धावन जलों को पवित्र और ग्राह्य होने का प्रतिपादन किया है, इससे यह भी सिद्ध होता है कि यह अन्तर्वाच्य विक्रम की चौदहवीं शती के किसी तपागच्छीय विद्वान् की कृति है, इसमें कोई संशय नहीं रहता । उपदेश करने के २ - द्वितीय कल्पान्तर्वाच्य जो हस्तलिखित हैं और ३४ पत्रों में पूरा हुआ है, इसमें अधिकांश प्राकृत गाथाएँ हैं और बीच में आने वाली नागकेतु की कथा, मेघकुमार की कथा, कार्तिक सेठ का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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