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________________ १४४ की और धीरे धीरे बाद में सुविहित श्रमण गण ने भी इस प्रवृत्ति को अपनाया और जिनचरित्र, स्थविरावली, सामाचारी सम्मिलित करके पर्युषणा के दिन तक के पांच दिनों में पर्युषणा कल्प पूरा करने की परम्परा प्रचलित की, उस समय मूल सूत्र के ही विभाग छांटकर पांच दिनों में कल्पवाचना पूरी करते थे, न इस पर कोई थी निर्युक्ति, न थी चूणि, निर्युक्ति चूर्णि आदि इसके अंग बाद के बने हुए हैं, ऊपर कह आए हैं कि आनन्दपुर में सर्व प्रथम चैत्यवासी साधुओं ने सभा में कल्पवाचना प्रारम्भ की थी और वर्षों तक शिथिलाचार्यों ने ही सभा में इसे बांचा, सुविहित साधु रात्रि के प्रथम पहर में कालग्रहण पूर्वक इसे पढ़ते सुनते थे, रहते रहते सुविहित श्रमण- गण ने भी शास्त्रीय पारिपाटी को छोड़कर चतुविध संघ की सभा में इसे वांचना प्रारम्भ किया, ज्यों ज्यों पर्युपणा - कल्प सुनने की जनता की इच्छा बढ़ती गई त्यों त्यों इसके पढ़ने वालों ने अपने व्याख्यान को रसप्रद बनाने के लिए बीच में कहने के लिए कुछ प्रासंगिक हकीकतें, सुभाषित और कथानकों की योजना बनाकर अन्तर्वाच्य तय्यार किये और सूत्र पढ़ते समय प्रसंग आने पर तय्यार किया हुआ मसाला भी सुनाते जाते थे, जब यह मसाला अधिक बढ़ गया, तब सूत्र पढ़ने वाले सूत्र के साथ दृष्टान्त सुभाषितों का संग्रह भी अपने पास रखते और प्रसंग आने पर उस रस-सामग्री को भी यथास्थान पढ़ सुनाते थे, इसी से रस सामग्री के इन संग्रहों का नाम "अन्तर्वाच्य " प्रसिद्ध हुआ । आज इस प्रकार के अनेक अन्तर्वाच्य जैन शास्त्रों के भण्डारों में उपलब्ध होते हैं, परन्तु ज्यों-ज्यों साधुनों का प्राकृत भाषा का ज्ञान कम होता गया, त्यों-त्यों अन्तर्वाच्यों के आधार पर कल्पसूत्र की वाचनाएँ करना कठिन हो गया, इस परिस्थिति में विद्वान् साधुओं को पर्युषणा - कल्प पर विस्तृत सूत्र - व्याख्या करने वाली संस्कृत टीकाएँ बनाने की स्फुरणा हुई और भिन्न-भिन्न विद्वानों ने अपनी अपनी रुचि के अनुसार कल्प पर पंजिका, वृत्ति और टीकाएँ बनाकर अल्पज्ञ पढ़ने वालों के लिए मार्ग सुगम कर दिया, आज अन्तर्वाच्य, पंजिका, वृत्ति, टीका आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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