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(३) पर्युषणा-कल्प और इसकी टीकाएँ
जैन सिद्धान्तों की नामावलि में “कल्प” नामक तीन सूत्रों की गणना हुई है।
पहला "कल्प' वह है जो आजकल 'बृहत्कल्प' के नाम से पहिचाना जाता है, इस कल्प की गणना 'कालिक श्रुत' में की गई है और “औत्कालिक श्रुत” गिने जाने वाले कल्पों के दो नाम मिलते हैं, पहला "चुल्लकप्प-सुअ" ( क्षुल्लक-कल्पश्रुत ) और दूसरा “महाकप्प सुअ' ( महाकल्पश्रुत ) यह महाकल्प श्रुत विच्छेद हुए हजार वर्षों से अधिक समय हो गया है, अब रही "चुल्लकप्प सुअ" की बात सो इस सूत्र का अस्तित्व आज भी है, जो "कल्पसूत्र'' अथवा “पर्युषणा कल्प" के नाम से प्रसिद्ध है, यहां शंका होना स्वाभाविक है कि “पर्युषणाकल्प" तो "कल्पाध्ययन" से भी बड़ा है, तब इसे "चुल्लकप्पसुअ' कैसे कहा गया ? शंका उचित है, क्योंकि आजकल का “पर्युषणा-कल्प” बारह सौ श्लोकों से भी अधिक परिमाणवाला है, परन्तु यह परिमाण मौलिक नहीं है, पूर्वकाल में जिस “पर्युषणाकल्प' का जैन साधु पर्युषणा के प्रारम्भ में पठन श्रवण करते थे, वह “पर्युषणा-कल्प" इतना बड़ा नहीं था, किन्तु वर्तमान पर्युषणा-कल्प का अन्तिम अधिकार “सामाचारी' ही उस समय का पर्युषणाकल्प था, और उसका पठन श्रवण श्रमण-गण काल ग्रहण पूर्वक रात्रि के समय में करते थे, न उस समय इसकी नव वाचनाए होती थीं और न यह चतुर्विध संघ की सभा में पढ़ा जाता था। ___कहा जाता है कि राजा ध्रुवसेन का पुत्रमरणजात शोक दूर करने के लिए 'आनन्दपुर नगर' में वहां के रहने वाले शिथिलाचारो साधुओं ने पर्युषणा-कल्प को चतुर्विध संघ की सभा में सुनाने की योजना की और राजा प्रमुख को इस समारम्भ में बुलाया गया, इस प्रकार कल्पसूत्र सभा में पढ़ने की शुरुआत चैत्यवासियों ने
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