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________________ १३ उत्प्रवजित होने के पहले रजोहरण गुरु को अर्पण करना चाहिए--- नन्दीषेण के अधिकार में सूत्रकार लिखते हैं, जब तक प्रव्रज्या तथा रजोहरण पास में हो कुछ भी अकृत्य नहीं करना चाहिए, यदि जाने का निश्चय ही कर लिया हो तो दीक्षा के उपकरण रजोहरण आदि गुरु को सोंपने चाहिए, जहां तहां रजोहरण नहीं छोड़ना चाहिए, गुरु को वेष सोंपने जाय तब गुरु के उपदेश से उसकी प्रधावित होने की भावना बदल भी जा सकती है, इस कारण से साधुलिंग गुरु को सोंपना लिखा है, वह पाठ यह है "जाव गरुणो ण रयहरणं, पवज्जा य ण अप्पिया (ण्णि)। ताव अकज्ज ण कायव्वं, लिंगमवि जिणदेसियं ।। अण्णत्थ ण उज्झेयव्वं, गुरुणो मोत्तूण अंजलिं । जइ सो उवसामि सक्को , गुरु ता उपसामेइ ॥" १४ मत्स्यबंधक और व्रतभंजक___मच्छीमार जन्म से लेकर मरण पर्यन्त जितना पाप करता है उससे आठ गुना पाप व्रतभंग करने की इच्छा वाला करता है, यह महानिशीथ का विधान जैन सिद्धान्त से मेल नहीं खाता, जैन सिद्धान्त ने व्रत लेकर अखंडित रखने वाले को उत्तम, व्रत लेकर खंडित करनेवाले को मध्यम और अव्रती को कनिष्ठ माना है । व्रत खंडित करने की इच्छा वाले मनुष्य को मच्छीमार से आठ गुना पापी महानिशीथ भले ही कहे, पर जैन सिद्धान्त ऐसा नहीं कहता, महानिशीथ की निम्न गाथा जैन सिद्धान्त से मेल नहीं खाती। आजम्मेणं तु जं पावं, बंधेज्जा मच्छवंधगो। वयभंग काउमाणस्स, तं चेवट्ठगुणं मुणे॥" (६।१४६) १५ मेथुन के पाप की भयंकरता___जो निर्दय मनुष्य लाख स्त्रियों के सप्ताष्ठ मासिक गर्भो को पेट चीर कर निकालेऔर तड़फते हुए बच्चों को काटे उसको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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