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संघट्टिज्जतं वा परेहिं समगुजाणेज्जा, से णं तं कम्मं जया उदिष्णं भवेज्जा तथा जहा उच्छुखंडाई जंते तहा निष्फीलिज्ज माणो छम्मासे णं खवेज्जा । एवं गाढे दुवालसेहिं संच्छरेहिं तं कम्मं वेदेज्जा | एवं श्रगाढवरियावणे वाससहस्सं, गाढपरियावणे दसवास सहस्से, एवं श्रगाढ किलामगे वासलक्खं गाढ किलामणे दसवास लक्खाई एवं उदवणे वासकोडी, एवं तेइंदियाइसु वि णेयं, ता एवं च वियाणमाया मा तुम्हे मुज्झह त्ति ।"
१२ कुवलयप्रभाचार्य की स्पष्ट वाणी
एक समय आचार्य कुवलयप्रभ विहार क्रम से चैत्यवासियों के क्षेत्र में पहुंचे, चैत्यवासियों ने उन्हें वन्दन सत्कार किया और ठहरा कर कहा -- ' आप यहीं वर्षावास ठहरें, आपके उपदेश से यहां सुन्दर जैन चैत्य बन जायगा और बहुत लाभ होगा । चैत्यवासियों के आग्रह का उत्तर देते हुए महानुभाग कुवलयप्रभ ने कहा- हे प्रियंवद महानुभावों ! आप लोग चैत्य के विषय में मुझे अनुरोध करते हैं, परन्तु मैं इसके सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहूंगा, यद्यपि जिनालय का काम है, तथापि सावद्य होने से मैं इस सम्बन्ध में वचन मात्र से भी आप लोगों की सहायता नहीं करूंगा ।'
उक्त प्रकार से सिद्धान्त का यथार्थ तत्त्व निःशंकतया लिंगधारियों के समक्ष कहते हुए कुवलय प्रभ आचार्य ने तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म उपार्जित किया, इतना ही नहीं उन्होंने कर्मस्थिति को घटाते घटाते भवसमुद्र एक भवावशेष कर दिया । उक्त वृत्तान्त जिसके आधार से लिखा है, वह महानिशीथ का मूल पाठ यह है" ताहे भणियं तेरा महाणुभागेणं, गोयमा ! जहा- भो-भो पियंar ! जइ वि जिणालए तहा वि सावजमियं ग्राहं वायामित्तेणं एवं आयरिजा, एयं च समयसारयरं तत्तं जहट्ठियं श्रविवरीयं णीसंकं भणमाणे णं तेसिं मिच्छद्दिट्ठि लिंगीणं साहुवेसधारीणं गोयमा ! संकलियं तित्थयरणामकम्मगोयं तेणं कुवलयप्पमेणं, एगभवाव सेसीकओ भवोयही ।" (५।१२६)
मज्मे
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