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________________ सर्वदर्शी तीर्थंकरों ने सत्ताबीस हजार स्थंडिल कहे हैं, उनको उपयोग पूर्वक शोधते हुए चलना चाहिए, उपयोग शून्यता से जैसे तैसे नहीं चलना चाहिए, तुम्हारी इच्छानुसार उपयोग पूर्वक चलो, क्या वह सर्वतत्त्वों का सार भूत सूत्र भूल गये हो जिसमें बेइन्द्रियादि जीवों के संघट्टन, संगट्टावन आदि से बांधे जाते कर्म और उनका उदय बताया है, जैसे एक बेइन्द्रिय जीव का एक समय मात्र हाथ से वा पग से संघट्ट करे करावे वा वैसा करने वाले का अनुमोदन करे तो वह कर्म उदय में आने पर छ मास तक भोगना पड़ेगा, गाढ पीडा उपजाई होगी तो उसका कर्म १२ वर्ष तक, अगाढ परितापन में हजार वर्ष तक, गाढपरितापन में दस हजार वर्ष तक, अगाढ किलामना उत्पन्न होने पर लाख वर्ष और गाढ किलामना में दस लाख वर्ष तक, उपद्रव में किरोड वर्ष तक तज्जन्य कर्म भोगना पडेगा, ऐसे तेइंन्द्रियादि के संघट्ट में जानना चाहिए, इन बातों को जानते हुए तुम मोह के वश मत पड़ो, विचार करो, इस प्रकार हे गौतम ! अपने शिष्यों को शास्त्रीय मार्ग समझाने पर भी उन अविनीत शिष्यों ने अपने गुरु का हितावह वचन भी नहीं माना, तब प्राचार्य ने उनका वेष छीनने का विचार किया और एक का वेष छीन भी लिया, पर इतने में तो वे एक न्यून पांच सौ साधु भाग निकले, उक्त कथन का मूलाधार यह निम्नलिखित पाठ है 'भो भो उत्तमकुलनिम्मलवंसविहूसणा !. अमुगपम्यगाइ महासत्ता. साहो पहपडिवण्णाणं पंचमहव्वयाहिहियतणूणं महाभागाणं साहुसाहूणीणं सत्तावीसं सहस्साई थंडिलाणं सव्वदंसीहि पएणत्ताई तेसु य उवउत्तेहिं विसोहिज्जति । ण उणं अण्णोवउत्तेहि, ता किमेवं सुण्णसुण्णीए अण्णोवउत्तेहिं गम्मइ । इच्छायारेणं उपयोगं देह । अण्णं च तं इणमो सुत्तत्थं किं तुम्हाणं विसुमरियं भवेज्जा । जं सारं सवपरमतत्ताणं । जहा एगे बेइन्दिये पाणी एग समयमेव हत्थेण वा पाएण वा अण्णयरेण वा सलागा इअहिगरण भूप्रोवमरणजाएणं तेण केई संघट्टावेज वा एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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