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ये पांच पदार्थ गृहस्थ के घर में विद्वानों को सूना दिखाई दिए, पंच सूना धीरे धीरे साधुओं के उपाश्रयों तक पहुंच चुकी थीं और महानिशोथ के निर्माता को कहना पड़ा कि जिस गच्छ में पाँच में से एक भी सूना विद्यमान है उस गच्छ का तुरन्त त्याग कर दूसरे गच्छ में जाना चाहिए, जिस गच्छ में सूना प्रवर्तमान हों वह गच्छ उज्ज्वल वेषधारी हो तो भी उसे छोड़ देना चाहिए, जो चारित्र गुणों से उज्ज्वल है वही वास्तव में उज्ज्वल है, उजले वस्त्रों से उज्ज्वल उज्ज्वल नहीं । उक्त सूना सूचक पाठ यह हैजत्थ य गोयमा पंचण्हं, कहरि सूणाण एकमवि होला । तं गच्छं तिविहेणं, वोसिरिय वएज अन्नत्थ ॥ खूणारंभपवत्तं, गच्छं वेसुजलं ण वसेजा। जं चारित्तगुणेहिं तु, उजलं तं निवासेजा ॥” (५।१०२) ६ आचार्यों के शिथिलाचार का महानिशीथकार पर असर__ यों तो सम्पूर्ण महानिशीथ में शिथिलाचार का प्रतिबिम्ब है, इसी के परिणाम स्वरूप निबन्धकार के मुख से अनेक स्थानों में दु:ख व्यञ्जक उद्गार निकले हैं, एक स्थान पर आपने लिखा है'हे गौतम ! इस अनादि भूतकाल में ऐसे आचार्य हुए हैं और अनन्त भविष्य काल में सूरि नामधारी ऐसे प्राणी होंगे जिनका नाम लेने पर भी प्रायश्चित्त लगेगा यह निश्चित समझो, उक्त वृत्तान्त व्यञ्जक महानिशीथ की गाथा निम्नोल्लिखित है
"भूए अणाइकालेण, केइ होहिंति गोथमा ? सूरी।
णामग्गहणेणवि जेति, होज नियमेण पच्छित्तं ॥" १० दुष्षमा के अन्त में भावी अनगार और साध्वी
पांचवें आरे के अन्त में होने वाले अनगार “दुःप्रसह" और अनगारी "विष्णु श्री'' ये दोनों अकेले ही होंगे, फिर इनको भाराधक कैसे माना जायगा ? इसके उत्तर में भगवान् महावीर से कहलाया कि गौतम ! दुष्षमा के अन्त में चार युगप्रधान क्षायिक-सम्यक्त्व
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