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आठ से कम न होने चाहिये ऐसा कहते हैं यहां दी हुई ८ की संख्या का मूलाधार क्या है इसका पता नहीं लगा, सूत्रांतरों में ऐसा विधान दृष्टिगोचर नहीं हुआ। आर्यानीतपात्रकादि उपकरणों को वापरने का बार बार निषेध करने से समझा जाता है कि इस महानिशीथ के रचनाकाल में साधुओं के साथ साध्वियों का परिचय बहुत बढ़ चुका था और उसका बुरा परिणाम भी लेखक की दृष्टि में आ चुका था, इसी वास्ते स्थान-स्थान में "आर्या कल्प' के ऊपर प्रहार किये गये हैं, इन प्रहारों से वे शिथिलाचारी साधु होंगे यह कहना तो साधार नहीं है, परन्तु एक बात तो निश्चित है कि शिथिलाचारियों को इस प्रकार खुला पाडने से एक बात अवश्य हुई होगी कि उस समय जो अल्पसंख्यक वैहारिक साधु थे उनको बल अवश्य मिला होगा और मठपति बने हुए चैत्यवासियों की किले बन्दी कमजोर हुई होगी और अल्पसंख्यक वैहारिक श्रमणों को क्रियोद्धार के लिए उत्साहित किया होगा, व्यक्तिगत क्रियोद्धार होने लगे होंगे और शिथिलाचारियों के अड्डों की तरफ से गृहस्थों की सहानुभूति बदलने लगी होगी और फलस्वरूप धीरे धीरे त्याग मार्ग प्रकाश में आने लगा होगा, यह समय विक्रम की दशवीं शती का उत्तर भाग था।
८ पंचसूना-प्रचार--
महानिशीथ के पंचम अध्ययन में "सूना” शब्द का प्रयोग आया है, यह शब्द अतिप्राचीन है, पर पंच सूना पौराणिक है, आचार्य हेमचन्द्र आदि ने अपने ग्रन्थों में इस शब्द का पर्याप्त प्रयोग किया है, यद्यपि कौटिल्यार्थशास्त्र में भी यह शब्द मिलता है, पर 'पंच शब्द' संयोगी 'पंचसूना शब्द' बहुत पीछे का है, "सूना" शब्द का मौलिक अर्थ है "हत्यास्थान' आजकल का “कसाईखाना" ही प्राचानकाल में “सूना' कहलाता था, परन्तु ज्यों ज्यों "अहिंसाधर्म" के उपदेशक अहिंसा की व्याख्या की गहराई में उतरते गये त्यों त्यों उन्हें प्रत्येक गृहस्थ के घर में पांच सूनाओं के दर्शन हुए, आटा पीसने की चक्की, ओखली, चूल्हा, प्रमार्जनी और पानीयघर
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