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उक्त नामों को एकार्थक बताने वाली सूत्र गाथा
निम्नलिखित हैं-- "मुणिणो संघ तित्थं, गण पश्यण मोक्खमग्ग एगहा। दंसण नाण चरित्ते, घोरुग्गतवं चेव गच्छणामे य ॥" (६३) ७ साध्वियों के साथ साधुओं का विहार
पांचवें अध्ययन में लिखा है कि अपवाद मार्ग से भी यदि साध्वियों के साथ साधुओं को विहार करना पड़े तो उनकी संख्या ८ से कम न होनी चाहिए, जिस गच्छ में आर्या द्वारा लाया हुआ पात्रक आदि विविध उपकरण काम में लाया जाता हो वह गच्छ वास्तव में गच्छ नाम से व्यवहत होने योग्य नहीं होता, उक्त कथन का मूलाधार निम्नोद्धृत गाथायें पठनीय हैंजत्थ य गोयमा ! साहू, अजाहिं समं पहमि अहणा। अववाएण वि गच्छेजा, तत्थ गच्छंमि का मेरा ॥ जत्थ य अजालद्धं, पडिग्गहमादिविविहमुवगरणं । परिभुजइ साहूहि, तं गोयम केरिसं गच्छं ।" (१००)
पूर्वकाल में साधु साध्वियों का विहार साथ में होता था यह कहकर कोई कोई सहविहार का समर्थन करते हैं, जिसका खण्डन करते हुए महानिशीथकार कहते हैं-तीर्थंकर काल की बात जाने दो, आजकल पंचम पारे में साधु-साध्वियों का सहविहार हानिकारक है, यदि कारण विशेष से सहविहार करना ही पड़े तो उसमें साधु संख्या ८ से कम न होनी चाहिए । छेद सूत्रों में वृद्ध और कृतकरण गीतार्थ को साध्वियों का आचार्य नियत करने और विहार में रक्षक के रूप में साध्वीसमुदाय के साथ रहने का विधान किया है, इससे भी यही सिद्ध होता है कि सहविहार की परिपाटी कभी की बन्द हो चुकी थी, इससे साध्वियों के विहार में वृद्ध गीतार्थ साधु को रक्षक के रूप में साथ भेजने की व्यवस्था करनी पड़ी थी । महानिशीथकार कारणवश सहविहार करना पड़े तो भी साधु
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