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सहुमस्स पुढविजीवस्स, वावत्ती जत्थ संभवे ।
महारंभं तयं बेति, गोयमा! सव्वकेवली" ।। (२१४१) (२) ३ अल्पक्षयोपशम साधु के कर्त्तव्य
तृतीयाध्ययन में सूत्रकार ने अल्पक्षयोपशम वाले साधु के लिए कर्तव्य बताते हुए लिखा है कि जिनको अति निबिड ज्ञानावरणीय कर्मों के उदय से रातदिन घोखने पर भी वर्ष भर में आधा श्लोक भी याद न होता हो तो उनको क्या करना चाहिए ? उत्तर में भगवान ने कहा—जिन्हें कर्मोदय के दोष से श्रुतज्ञान न चढ़ता हो उन्हें स्वाध्याय में लीन रहने वाले अभ्यासियों का वैयावृत्त्य करने का अभिग्रह रखना चाहिए और प्रतिदिन २५०० नमस्कार मंत्र एकाग्रचित्त से घोखना चाहिए । उक्त वृत्त निवेदक मूल पाठ नीचे लिखा है
“से भयवं जस्स अइगरुयणाणावरणोदएणं अहन्निसं पहोसे माणस्स संवच्छरेणावि सिलोगद्धमवि णो थिरपरिचियं भवेजा से किं कुजा ? (गोयमा!) तेणवि जावजीवाभिग्गाहेण सज्झायसीलाणं वेयावच्चं तहा अणदिणं अढ़ाइज्जे सहस्से पंचमंगलाणं सुलत्थोभए सरमाणेगग्गमाणसे पहोसेजा।" (३।६६)
उक्त दो फिकरों में से अल्पारम्भ महारम्भ वाला फिकरा व्यवहारोत्तीर्ण है, इस व्याख्या के अनुसार गृहस्थ तो क्या केवली भी अल्पारम्भ तथा महारम्भ बनने से बच नहीं सकते, केवली के औदारिक शरीर के स्पर्श से सूक्ष्म पृथ्वीकाय की किलामना विराधना और व्यापत्ति होना अनिवार्य है, इस स्थिति में श्वेताम्बर जैन सूत्रों के मत से “अल्पारंभ" और "महारम्भ'' की व्याख्या असंगत है। अल्पक्षयोपशम वाले साधु को वर्ष भर में आधा श्लोक याद नहीं होता होगा उसे नमस्कार मंत्र को जो दो श्लोकों से भी अधिक है-ढाई हजार बार घोखने में कितना समय लगेगा ? इसका लेखक ने विचार नहीं किया मालूम होता है।
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