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सविस्तर चरित्र जान लेने का वचन भी विचारणीय है, विद्यमान अन्तकृद्दशा में तीर्थंकरों के चरित्र नहीं किन्तु मोक्ष प्राप्त करनेवाले कतिपय मुनियों के चरित्र हैं, महानिशीथकार ने जो वहां से तीर्थंकर चरित्रों का सविस्तर अधिकार जान लेने की सूचना की है वह उनका प्रमाद मालूम होता है, समवायांग आदि किसी भी सूत्र में द्वादशांगी के विषय निरूपण में अंतकृद्दशांग में तीर्थंकर चरित्र होने की बात नहीं कही। ___ जिन सूत्र पाठों के आधार से उक्त वृत्त लिखा है वे पाठ निम्न लिखित हैं
"काऊणं सोगचा, सुरणे दस दिसि वहे पलोयंता। जह खीरसागरे जिण-वराण अट्ठी पखालिऊणं च ॥ सरलोए नेऊणं, आलिंपिऊण पवरचंदणरसेणं । मंदार-पारियाय-स यवत्त सहस्सपत्तेहिं ॥ जह अच्चेऊण सुरा, नियनियभवणेस जह व ते धुणंति ।
ते सव्वं महया विचथरेण अरहंतचरियाभिहाणे अंत कडदसाणं मज्झायो कसिणं विन्न यं ॥ (३।५६-५७)"
२ अल्पारंभ और महारंभ
महानिशीथ द्वितीयाध्ययन की दो गाथाओं में सूत्रकारने "अल्पारंभ" तथा "महारम्भ' शब्दों की व्याख्या करते हुए लिखा है-"जहां सूक्ष्म पृथ्वीकाय के एक जीव की "विराधना'' संघट्टपरिताप-किलामना आदि के रूप में होती हो तो हे गौतम ! राकेवली उसे “अल्पारंभ" कहते हैं और जहां सूक्ष्म पृथ्वीकाय के एक जीव का विनाश होने का सम्भव हो उसे हे गौतम ! सर्व केवली “महारम्भ" कहते हैं “अल्पारम्भ” तथा “महारम्भ" की व्याख्या करने वाली गाथाएँ ये हैं
"सहुमस्स पुढविजीवस्स, जत्थेगस्स विराहणं । अप्पारंभं तयं बेति, गोयमा ! सबकेवली ॥
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