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________________ १३० की गाथा में ही लेखक कहते हैं, वे जीव केवलज्ञान का विषय मात्र है, पर केवली उन्हें देखते नहीं हैं, अवधिज्ञानी उन्हें जानते हैं, पर देखते नहीं, मन: पर्यवज्ञानी जानते भी नहीं और देखते भी नहीं। उक्त हकीकत के सूचक पाठ निम्नलिखित हैं "जासिं च णं अभिलसिउकामे पुरिसे तजोणिसंमुच्छिमपंचिन्दियाणं एक पसंगणं चेव णवण्हं सयसहस्साणं णियमात्रो उवदवगे भवेजा। ते य अच्चंतसुहुमत्तानो मंसचक्खुणो ण पासिया। ++ +" (२।४१) "तीए पंचिन्दिया जीवा, जोणीमज्झे निवासियो । केवलनाणस्स ते गम्मा, णो केवली ताई पासति । ओहि-नाणी वियाणेए, णो पासे मणमञ्जवी ॥" (६।१५३) उपर्युक्त पाठों का कुछ परावर्तित भाव अर्वाचीन संग्रह ग्रन्थों में मिलता है, परन्तु सूत्रों में अथवा प्राचीन प्रकरण ग्रन्थों में उसका विषय कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता है । ____३-इस फिकरे में लिखा हुआ वृत्तान्त महानिशीथ के तृतीयाअध्ययन में है, इसमें लिखा है कि 'तीर्थङ्कर के निर्वाण के बाद शोकाकुल हुए इंद्रदेव मिलकर उनके शरीर का अग्नि संस्कार करते हैं, क्षीरसमुद्र में उनकी अस्थियों को धोकर स्वर्ग लोक को ले जाते हैं, श्रेष्ठ चन्दन रस से उनका विलेपन कर मंदार, पारिजात, शतपत्र, सहस्रपत्र कमल पुष्पों से उनका पूजन कर फिर देव अपने अपने विमान स्थानों में चले जाते हैं, इन अस्थि आदि के पूजन स्नपनादि का सविस्तर वर्णन जो जिनचरिताधिकार में अन्तकृद्दशांग में दिया है सो वहां से जान लेना चाहिए।" निर्वाण के बाद चिता ठंडी कर इन्द्र तीर्थंकरों की दाढायें लेने का अन्यत्र लेख है, क्षीर समुद्र में अस्थियों को पखालने के बाद देव देवलोक में ले जाते हैं यह बात महानिशीथ के सिवाय अन्य सूत्रों में लिखी दृष्टिगोचर नहीं हुई, अंतकृद्दशांगसूत्र से अरहंतों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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