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अरहो सिज्झउ मे भगवई महइमहाविजा । वीरे महावीरे जयवीरे सेणवीरे बद्धमाणवीरे अजिए स्वाहा ।"
"उवचारो-चउत्थभत्तेणं साहिजइ ।" प्रति की समाप्ति में निम्नलिखित गाथा उपलब्ध होती है"चत्तारि सहस्साई, पंचसया दुह तहेव चत्तारि । एवं च सिलोगा विय, महानिसीहमि पाएणं ॥"
"चत्तारि तह सिलोगा, महानिसीहंमि गंथग्गी पाठान्तरम्।।" महानिशीथ का अध्ययन क्रम से अवलोकन ऊपर दिया गया है, आशा है कि पाठकगण को महानिशीथ के इस समालोचना लेख से प्रस्तुत ग्रन्थ सम्बन्धी ज्ञातव्य बातों की जानकारी प्राप्त होगी, महानिशीथ के सम्बन्ध में हमारे क्या विचार हैं इसके सम्बन्ध में ऊपर के लेख में समालोचना की है, अब एक परिशिष्ट के साथ इस लेख की समाप्ति की जाती है।
महानिशीथ के सार का परिशिष्ट यद्यपि महानिशीथ की परीक्षा में पर्याप्त विवरण दिया जा चुका है, फिर भी इस सूत्र में से कुछ पद्य-गद्य मय प्रतीक देकर इस लेख को समाप्त कर देंगे।
महानिशीथ में बहुत सी ऐसी बातें हैं जो अन्य सूत्रों के साथ मेल नहीं खाती, ऐसी बातों की अधिकांश चर्चा इस संदर्भ की समालोचना में की जा चुकी है।
१–अध्ययन दूसरे में निम्नोद्धृत पाठ में यह बताया है कि स्त्री की योनि में हर वक्त नव लाख समूच्छिम पंचेन्द्रिय जीव रहते हैं, स्त्री संग का अभिलाषी पुरुष एक ही बार के प्रसंग से उन जीवों का नाशक बनता है, उन जीवों को मांस चक्षु मनुष्य देख नहीं सकते, स्त्री योनि निवासी पंचेन्द्रिय जीवों को कि जिनकी संख्या सामान्यतया नव लाख होती है सर्व केवली देखते हैं। आगे
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