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________________ १२८ उन्हें तीन लाख गुना प्रायश्चित्त आता है, यह भी जो अति दुष्कर हो वह दिया जाता है, सुकर हो वह नहीं, इस वास्ते सर्व प्रकार से आचार्य, महत्तर और प्रवर्तिनी को आत्मा को प्रायश्चित्त से सदा सुरक्षित रखना चाहिए, अस्खलित शील रहना चाहिए। तो क्या भगवन् ! अप्रतिपाती महावधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी छद्मस्थ वीतराग भी सकलावश्यकों का अनुष्ठान करे?, हां गौतम ! आवश्यकानुष्ठान करें, केवल अनुष्ठान ही करें सो नहीं, वे निरन्तर सभी आवश्यकों का एक ही साथ अनुष्ठान करते हैं, भगवन् ! यह कैसे ?, गौतम ! अचिन्त्यबल-वीर्य बुद्धि ज्ञानातिशय शक्ति के सामर्थ्य से, भगवन् ! महावधिमनःपर्यवज्ञानी छद्मस्थ वीतराग जैसे आवश्यक अनुष्ठान किस लिए करते हैं ? गौतम ! उत्सूत्र, उन्मार्ग का उनसे प्रवर्तन न हो जाय इसलिए वे आवश्यकानुष्ठान करते हैं। इसके बाद गौतम ने सविशेष प्रायश्चित्त पूछे और भगवान् ने वर्षा रात्रिक, पंथ गामिक आदि कोई ४१ सविशेष प्रायश्चित्तों के स्थान बताये हैं और लिखा है—त्रिकाल चैत्यवन्दनादि सविशेष प्रायश्चित्तों के स्थान असंख्यात प्ररूपित किये जाते हैं, यह याद रखना चाहिए। प्रायश्चित्त सूत्र की संख्यात नियुक्तियां, संख्यात संग्रहणियां, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात अक्षर, अनन्तपर्यव यावत् दिखाये जाते हैं । . “जहा जोगं गुणगणेसु त्ति बेमि" यहां अष्टम अध्ययन की प्रथम चूलिका पूर्ण की है और आगे औपदेशिक गाथाओं का संग्रह, देकर "निरुवमअणंतमोवखं परिवसेज्जत्ति बेमि' इन शब्दों में अधिकार की समाप्ति की है और लिखा है-"महानिसीहस्स बिइया चूलिया। समत्तं च महानिसीहसुयक्खंध ।।" इसके बाद वर्धमान विद्या दी है जो नीचे लिखे मुजब है "ॐ नमो चउवीसाए तित्थंकराणं । ॐ नमो तित्थस्स । ॐ नमो सुयदेवयाए भगवतीए । ॐ नमो सुयकेवलीणं । ॐ नमो सव्वसाहूणं। ॐ नमो सवसिद्धाणं । ॐ नमो भगवत्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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