SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२७ हत्ताए, जाव णं आणुपुबीए, अणाणुपुबीए, जहा जोगं गुणहारणेसति बेमि ।" __अर्थात्-अनन्त पर्यव यावत् दिखाये जाते हैं, उपदेश का विषय किये जाते है, प्रवेदन किये जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं, प्ररूपित किये जाते हैं, कालत्व के अभिग्रह से, द्रव्यत्वाभिग्रह से, भावाभिग्रहत्व से, यावत् अनुपूर्वी से, अनानुपूर्वी से, यथायोग्य गुण स्थानों में घटा कर ऐसा कहता हूँ। ८ अध्ययन “से भयवं एयाणुमेत्तमेव पच्छित्तविहाणं" इत्यादि सूत्र से अष्टम अध्ययन का प्रारंभ होता है, प्रायश्चित्तविधान की इयत्ताविषयक गौतम के प्रश्न करने पर भगवान ने उत्तर दिया-गौतम ! प्रायश्चित्त का उक्त विधान सामान्य है, वर्ष भर के बारह मासों में प्रतिदिन-रात्रि के नियम-समयों में, जीवन पर्यन्त के योग्य, बाल, वृद्ध, शैक्ष महत्तर, आचार्य आदि के योग्य, तथा अप्रतिपाति महावधिमनःपर्यवज्ञानी, छद्मस्थतीर्थंकरों के एकान्तया अब्भ्युत्थानादि आवश्यक से सम्बन्ध रखने वाला सामान्य प्रायश्चित्त कहा है, परन्तु यह न समझना चाहिए कि प्रायश्चित्त मात्र इतने ही हैं। __ "से भयवं आयरियाणं केवइयं पायच्छित्तं भवेजा ? जमेगस्स साहुणोतं आयरिअ-मयहर-पवत्तणीए य सत्तरसगुणं अहा णं सीलखलिए भवंति तो तिलक्खणंगुजं अइदुक्करं णो जं सुकरं, तम्हा सबहा सयपयारेहिं णं आयरिय महयरपवत्तिणीए यअत्ताणं पायच्छित्तस्स संरक्खेयव्वं अखलियसीलेहिं च भयवेव्वं ।" (११२-३) अर्थ- 'वह भगवन् ! आचार्यों को कितना प्रायश्चित्त होता है ? उत्तर-एक साधु को एक अपराध का जो प्रायश्चित्त होता है उसी अपराध का आचार्य, महत्तर, प्रवर्तिनी को सत्रह गुना प्रायश्चित्त आता है और यदि वे शीलवत में स्खलनावाले हों तो १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy