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अग्रो एवं संपधारेजा जहा णं गोयमा ! पायच्छित्तसुत्तस्स णं संखेजाओ निज्जुत्तीओ, संखेजाओ संगहणीप्रो, संखेजाई अणियोगदाराई संखेज्जे अक्खरे।" _ 'भगवन् ! वह सविशेष प्रायश्चित्त कैसा होता है ? उत्तरगौतम ! सविशेष प्रायश्चित्त यह है-१ वर्षारात्रिक, २ पंथ गामिक ३ वसति परिभोगज, ४ गच्छाचारातिक्रमणज, ५ सुप्तिभेदप्रकरणज, ६ सप्तमंडलिधर्मातिक्रमणज, ७ अगीतार्थपदप्रदानजात, ८ कुशीलसंभोगज, ६ अविधिप्रव्रज्यादान-उपस्थापनाजात, १० अयोग्याने सूत्रार्थोभयप्ररूपणजात, ११ अनादरात्मोत्कर्ष वैरत्वजात, १२ देवसिक, १३ रात्रिक, १४ पाक्षिक, १५ मासिक, १६ चातुर्मासिक, १७ सांवत्सरिक, १८ ऐहिक, १६ पारलोकिक,२० मूलगुणविराधनजात, २१ उत्तरगुणविराधनज, २२ आभोगानामोगज, २३ आकुट्टिप्रमाददर्पकल्पिक, २४ व्रत-श्रमणधर्म-संयम तपो-नियमकषाय- दण्ड-गुप्तीय, २५ मद-भय-गौरव-इन्द्रियज, २६ व्यसनातंकरौद्रध्यान-राग-द्वेष-मोह-मिथ्यात्व-दुष्ट-क्रूराध्यवसायसमुत्थ २७ ममत्व-मूर्छा-परिग्रहारंभज, २८ असमितित्व-पृष्ठिमांसाशित्व-धर्मान्त राय-संतापोद्व ग-असमाधानोत्पादज, २६ संख्यातीताशातनान्यतराशातनाज्ञात, ३० प्राणवध समुत्थ, ३१ मृषावाद समुत्थ, ३२ अदत्तादानग्रहण समुत्थ, ३३ मैथुन सेवन समुत्थ, ३४ परिग्रह करण समुत्थ, ३५ रात्रिभोजन समुत्थ, ३६ मानसिक, ३७ वाचिक ३८ कायिक, ३६ असंयम कारण-करण-अनुमतिसमुत्थ, ४० यावत् ज्ञान दर्शनचारित्राचार समुत्थ, ४१ ज्यादा क्या लिखें, जितने त्रिकाल चैत्यवंदनादि प्रायश्चित्त स्थान कहे हैं उतने अथवा उनसे भी अधिक सविशेष प्रायश्चित्त स्थान हैं, हे गौतम ! ऐसा समझना चाहिए कि प्रायश्चित्त सूत्र की संख्यात नियुक्तियाँ, संख्यात संग्रहणियां, संख्यात अनुयोगद्वार और संख्यात अक्षर हैं ।
"अणते पज्जवे जाव णं दसिज्जंति उवदंसिज्जति, पवेदिज्जंति, परूविज्जंति, कालाभिग्गहत्ताए, दव्वाभिग्गहत्ताए भावाभिग्ग
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