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________________ १२४ वीर निर्वाण सं० १२५०, विक्रम सं० ७८० में पड़ता है जो प्रसिद्ध आचार्य श्री हरिभद्र सूरि के सत्ता समय का अन्तिम भाग है, महानिशीथ के जीर्णोद्धार का कार्य याकिनी महत्तरा धर्मपुत्र हरिभद्र के द्वारा होने की बात महानिशीथ के आदर्शो के टिप्पणों में लिखी मिलती है, उसकी संगति भी हो जाती है, जिन्होंने महानिशीथ के विद्यमान संदर्भ का निर्माण किया है उनकी दृष्टि में आचार्य हरिभद्र का सत्ता समय विक्रम की आठवीं शती था और इसी मान्यता के आधार पर कुगुरुओं की उत्पत्ति वीर निर्वाण की तेरहवीं शती के उत्तरार्ध में रक्खी है, जो वास्तविक भी है, क्योंकि श्री हरिभद्रसूरि दीर्घजीवी आचार्य थे, इनके जीवन ने विक्रम की आठवीं शती के चारों ही चरणों का स्पर्श किया था ऐसी हमारी मान्यता है, और "पणपण्णवारससए, हरिभदसूरी आसि पुचकई । तेरससयवीस अहिए, वरिसेहिं बप्पट्टिपहू ॥६५॥" अर्थात्--'निर्वाण से १२५५ में (विक्रम सं० ७८५ में) पूर्व कवि हरिभद्रसूरि और वीरनिर्वाण से १३२० में (विक्रम सं० ८५० में) बप्पभट्टि प्रभु हुए। यह गाथा रत्न संचय प्रकरण में संगृहीत है जो हमारे अनुमान की पुष्टि करती है, इस स्थिति में "पंचसए पणसीए" इत्यादि गाथा के आधार से हरिभद्रसूरि को छट्ठी शती में खींच ले जाना अनेक विरोधों का बवंडर खड़ा करना है। मूल में आये हुए “अद्धतेरसण्हं वाससयाणं साइरेगाणं समइक्कंताणं परओ भविसु।" इन प्राकृत शब्दों का संस्कृत अनुवाद इस प्रकार होता है "अर्धत्रयोदशानां सातिरेकानां समतिक्रान्तानां परतो भविष्यन्ति" अर्थात् कुछ अधिक साढ़े बारह सौ वर्ष होने पर कुगुरु उत्पन्न होंगे, मूल के सातिरेक शब्द से साढ़े बारह सौ के ऊपर पाँच वर्ष अतिरिक्त मान लिए जायें तो हरिभद्रसूरि का अन्तिम समय अर्थात् स्वर्गवास का समय ७८५ का आयेगा जो कुगुरुओं की उत्पत्ति का खास समय होगा । महानिशीथकार के इस समय में 'जैन परम्परा' में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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