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अर्थ – 'भगवन् ! कितने समय में जिन मार्ग में कुगुरु होंगे ? गौतम ! अब से साढ़े बारह सौ से कुछ अधिक वर्ष बीतने पर कुगुरु प्रकट होंगे । भगवन् ! इसका कारण क्या होगा ? भगवान् कहा - गौतम ! उस समय ऋद्धि गौरव, रस गौरव और शाता गौरव के संगत होकर ममता अहंकार आदि दुर्गुणात्मक अग्नि से जिनके शरीर जाज्वल्यमान हैं और " मैं भी हूँ, मैं भी हूँ" इस प्रकार के अहंकारी और शास्त्र का सद्भाव न जानने वाले गण के स्वामी होंगे, हे गौतम ! सभी तो ऐसे न होंगे, परन्तु कतिपय ऐसे अद्रष्टव्य मुख होंगे जो एक माता से एक साथ जन्म लेने पर भी निर्मर्याद, पापशील, दुर्जातजन्म, रौद्र प्रचंडाभिग्रहिक महामिथ्यादृष्टि होंगे, भगवन् ! वे कैसे पहिचाने जायेंगे ? उत्तर - गौतम ! उत्सूत्र, उन्मार्ग प्रवर्तन और उसके प्रचार से और ऐसे कार्यों में सहायक होने से प्रत्यय होगा कि ये कुगुरु हैं, भगवन् ! कोई गणी आवश्यक कार्य में प्रमादी हो तो क्या करना ? उत्तर -- गौतम ! जो गणी (आचार्य) निष्कारण क्षण भर भी प्रमाद करे तो उसे अवन्दनीय ठहराना, अर्थात् उसे वन्दन न करना चाहिए यह उसके प्रमाद का प्रायश्चित्त है ।'
उक्त संवाद में गौतम के "जिन मार्ग में कुगुरु कब होंगे ? " इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने फरमाया कि अब से साढ़े बारह सौ वर्ष के ऊपर कुछ वर्ष बीतने पर, कुगुरु प्रकट होंगे, यहां सूत्रकार ने यह स्पष्ट नहीं किया कि यह संवत् कौन है कि जिसके बारह सौ पच्चास से अधिक वर्ष बीतने पर मार्ग में कुगुरु प्रकट होंगे ? यद्यपि समय कहां से गिनना इसका स्पष्टीकरण नहीं है तथापि यह समय वीर निर्वाण का ही समझना चाहिये, क्योंकि सूत्रों में जहां कहीं भगवान् महावीर के मुख से भविष्यवाणी कराई है वहां सर्वत्र वीर निर्वाण के वर्ष को लक्ष्य में रखकर कराई है, अतः यहां भी वर्ष वीर निर्वाण का ही अपेक्षित है इसमें तो शंका ही नहीं, पर देखना इतना ही है कि उक्त समय में महावीर के धर्म मार्ग में ऐसी कुछ घटनाएं भी घटी थीं या नहीं ।
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