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________________ १२१ जायेंगे, इस प्रायश्चित्त सूत्र के विच्छेद होने पर गौतम ! सम्पूर्ण संयम का अभाव होगा, क्योंकि सर्व पापों का नाश करने वाला प्रायश्चित्त सूत्र तप संयमानुष्ठान का मुख्य अंग है। इतना ही नहीं परम विशुद्धि का प्रधान अंग है, प्रवचन का मक्खन-सारोद्धार कहा गया है, गोतग ! यह सर्व प्रायश्चित्त सम्मिलित करने पर जो राशि संख्या हो उससे चार गुना प्रायश्चित्त एक गच्छपति आचार्य को, महत्तर को और प्रतिनी को दिया जाता है, क्योंकि सर्व स्थानों को इन्हीं ने दिखाया है और ये ही जब प्रमाद के वश उनकी विराधना करते हैं यह अस्थानीय है, ऐसा करके ये बलवीर्य होते हुए मंद श्रद्धावान् बनते हैं और अन्यों को मन्दोत्साह बनाते हैं, भग्नपरिणामी का कायक्लेश भी निरर्थक है, इसलिए कहा जाता है-हे गौतम ! इन सर्व प्रायश्चित्तों का जो पिंड होता है उससे चतुर्गुण गच्छाधिपति आदि को प्राप्त होता है, इतना ही महत्तर को और इतना ही प्रवतिनी को देना चाहिए।' समाज में साधु से आचार्य, महत्तर की और सामान्य साध्वी से प्रवर्तिनी की जवाबदारी अधिक होने से इनको प्रायश्चित्त भी अधिक होता है, यह तो शास्त्रोक्त मार्ग है, परन्तु भिक्षु, भिक्षुणी से आचार्य, प्रवर्तिनी को चतुर्गण प्रायश्चित्त बताना शास्त्रोक्त नहीं है, भिक्षु को और भिक्षुणी को शास्त्र में मूल पर्यन्तप्रायश्चित्त की प्राप्ति बताई है, उपाध्याय को अनवस्थाप्य और प्राचार्य को पारांचित की, इस शास्त्रीय नियमानुसार एक साधु को मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति हुई तो उसी अपराध में आचार्य को चार गुना मूल किस प्रकार दिया जायगा ? मूल के ऊपर दो प्रायश्चित्त हैं, अनवस्थाप्य और पारांचित, एक पद ऊपर चढ़ाकर अनवस्थाप्य और दो पद चढ़ने पर पारांचित आते हैं, परन्तु चार पद चढ़ने पर तो कोई प्रायश्चित्त ही नहीं रहता, आचार्य, प्रवर्तिनी को चर्तुगुण प्रायश्चित्त कैसे दिया जा सकेगा, ज्यों ज्यों महानिशीथ के प्रायश्चित्त के विधान की गहराई में पहुंचते हैं त्यों त्यों विधान निराधार प्रतीत होने लगता है, महानिशीथ में उसका समर्थन नहीं और अन्य सूत्रों में प्रमाण नहीं, इस स्थिति में महानिशीथ के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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