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श्रमणों को भी कहीं कहीं मन्त्र तन्त्र का शौक लगा था, उपसर्गहरस्तवादि स्तोत्रों की उत्पत्ति इसी समय में हुई थी और यह समय था विक्रम की नवमी दशवीं शती । अपकाय-तेजस्काय-स्त्रीशरीरावयव-संघट्ट का
प्रायश्चित्त"जेण भिक्खू आउकायं वा तेउकायं वा इत्थीसरीरावयवं वा संघट्ट जा नो ण परिभुजेजा से ण तस्स पणवीसं आयंबिलाणि उवइसेजा ।"
अर्थ- 'जो भिक्षु अप्काय, तेजस्काय, स्त्रीशरीरावयवों का संघट्ट मात्र करता है, इनका उपभोग नहीं करता उसके लिए प्रायश्चित्तों में पच्चीस आयंबिलों का उपदेश करना ।'
स्त्री शरीरावयवों के उपभोग का प्रायश्चित्त
"जे उण परिभुजेज्जा से ण दुरंतपंतलक्खणे अदम्वे, महापावकम्मे, पारंचिंए, अहा ण महातवस्सी हवेज्जा तो सत्तरि मासखवणाण, सत्तर अद्धमासखवणाण, सत्तर दुवालसाण, सत्तरं दसमाण, सयरिं अट्ठमाणं, सयरिं छट्ठाण, सयरिं चउत्थाणं, सयरिं आयंबिलाणं, सयरिं एगट्ठाणाणं, सार सुद्धायामेगासणगाणं, सरि निधिगइयाणं, जाव ण अणुलोम पडिलोमेणं निदिसेजा एयं च पच्छित्तं जे णं भिक्खूवीसंते समण्ठेजा से णं अासण्णपुरेकडे णेए।"
___ अर्थ-'जो स्त्री शरीरावयवों का उपभोग करता है वह दुरंत प्रान्तलक्षण वाला, अद्रष्टव्य, महापापकर्मा, पाराञ्चित होता है, यदि अपराधी महातपस्वी हो तो उसे ७० मास क्षपण, ७० अर्धमास क्षपण, ७० द्वादशभक्त, ७० दशम भक्त, ७० अष्टम भक्त, ७० षष्ठ भक्त, ७० चतुर्थभक्त, ७० आयंबिल, ७० एकलठाणे, ७० शुद्ध
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