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________________ रक्खंण करेज्जा उवट्ठावण, दससुविंदिसासु रक्खं काउण दुवाल साहिं भावणाहिं अभावियाहिं सोवेज्जा पणवीसं आयंबिलाणि, एक्कं निदं सोऊण पडिबुद्ध ईरियं पडिक्कमेत्ता ण पडिक्कणमकालं जाव सज्झायं न करेजा दुवालसं, पसुत्ते दुसुमिण कुसुमिण वा प्रोगाहेजा सएणं ऊसासाणं काउस्सग्गं, रयणीए छीएज वा खासेजा वा हलहग-पीढगदंडगेण खुडुक्कगं पउरिया खमण, दिवा वा रात्री वा हास खेड्उकंदप्पणाहियवायं करेजा उवट्ठावणं ।" अर्थ- 'दैवसिक प्रतिकमर्ण के बाद स्वाध्याय न करे, “सव्वस्ससमणसंघस्स" आदि आयरिय उवज्झाय की गाथाओं का भाव लेकर त्रिविध त्रिविध क्षामण मर्षण न करे, सागारिक प्रत्याख्यान न कर, कानों में रुई के फाये न डालकर संथारे पर बैठे तो प्रत्येक में उपस्थापना का प्रायश्चित्त, संथारे पर बैठकर इस चर्ममय शरीर की गुरुपरम्परा लब्ध इन परम मन्त्राक्षरों द्वारा दशों ही दिशाओं में बारह भावना भावकर सर्प, सिंह, हस्ती, दुष्ट, प्रान्त, वानमंतर, पिशाचादि से रक्षा न करे तो उपस्थापना, दश दिशाओं में रक्षा न कर बारह भावना न भाकर सो जाय तो २५ आयंबिल प्रायश्चित्त, न करे तो ५ उपवास, सोते हुए दुःस्वप्न, कुस्वप्न भी होते हैं इसलिए १०० श्वासोश्वासका कायोत्सर्ग करे, रात्रि में छींक, खाँसी करे या हलपीठ हेड से खट खटाए तो क्षपण (२ उपवास) दिन या रात में हास्य, क्रीड़ा, कंदर्प, नास्तिकवाद की बातें करें तो उपस्थापना कराना। रात को सोते समय कानों में रुई के फाहे डालने, गुरुपरम्परागत मंत्राक्षरो से सर्प पिशाचादि की रक्षा करने, रात्रि प्रतिक्रमण के प्रारम्भ में कुसुमिण दुसुमिण की शान्ति के लिए १०० श्वासोच्छास का कर्योत्सर्ग करने आदि का विधान महानिशीथ के पूर्ववर्ती किसी सूत्र या सामाचारी में दृष्टिगोचर नहीं होता, बौद्ध भिक्षुओं में विक्रम की पांचवीं छठी शती में तन्त्रवाद का प्रचार हो गया था, पर जैन श्रमण इससे बचे हुए थे, बौद्धों के दक्षिण, पश्चिम, उत्तर भारत से चले जाने के बाद जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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