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________________ ११६ उस विघ्न के अनुरूप कठोर तप का आचरण कराना चाहिए । अगर ये प्रतीकार वह न करें तो उसे गच्छ बाहर किया जाय । क्योंकि जिससे महोपसर्गसाधक उक्त दुर्निमित्त हुआ है वह अमंगलकारक होता है । पग में जूते पहनकर इधर उधर घूमे उसे फिर उपस्थापना कराई जाय, उपानह ( पगरखे ) न रक्खे तो क्षपण ( छट्ठ), आवश्यक प्रसंग पर पगरखे न पहिने तो क्षपण, देववन्दन किये बिना प्रतिक्रमण करे तो चतुर्थभक्त, यहां अवसर को ध्यान में लेकर दे, प्रतिक्रमण करके रात्रि का प्रथम पहर पूरा हो तब तक स्वाध्याय न करे तो ५ उपवास, प्रथम पहर पूरा होने के पहले संस्तारक का आदेश ले तो छुट्ट, आदेश लिये बिना संस्तारक पर सोवे तो चतुर्थभक्त, स्थंडिलप्रतिलेखना किये बिना संस्तारक करेगा तो ५ उपवास, अविधि से संथारा करे तो चतुर्थ भक्तX उत्तरपट्टे बिना संथारा करे तो चतुर्थ भक्त, दुपट संथारा करें तो चतुर्थभक्त प्रायश्चित्त दिया जाय ।' वन्द्य वन्दक के बीच में वन्दना के समय में सांप अगर बिल्ली का निकलना कैसा खतरनाक माना है । महापारिष्टापनिका नियुक्ति में मृत साधु के शरीर में पिशाच का प्रवेश हो कर मृतक खड़ा हो कर अमुक साधु का नाम पुकारे तो उसका तत्काल लोच कर उसे उस स्थान से विहार कराने की बात जैसी यह हकीकत है, कर्मफलभोग के सिद्धान्त पर निश्चल रहने वाले जैन श्रमणों का ऐसी भ्रामक बातें लिखना और लिखे मुजब प्रतीकार न करने वाले साधु को गच्छ बाहर करने की बातें करना सचमुच ही जैन तत्त्वज्ञान से विरुद्ध हैं, प्रायश्चित्त अपराधी की भावना बदलने के लिए प्रतीकार रूप हैं, न कि कर्मफल को मिटाने के लिये, जैन श्रमणों को परीषहों को जीतकर स्वावलम्बी होने का उपदेश है, सुख साधनों का उपयोग न करने पर उन्हें कोई प्रायश्चित्त नहीं लगता, जैन शास्त्र में गच्छपति आचार्य को पांच जात के चर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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