SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११५ उग्रता तथा प्रतिशयिता का भी यही कारण है, महानिशीथ के निर्माता यदि सुविहित आचार्य होते तो उपधान की समाप्ति में जिनचैत्य में नन्दी की क्रिया कराकर श्वेत ताजेपुष्पों की माला जिन के पूजा देश से अपने हाथों में लेकर गृहस्थ के गले में पहिनाने का विधान कभी नहीं करते, इससे ज्ञात होता है कि महानिशीथकार सुविहित आचार्य न होकर वे स्वयं शिथिलाचारियों की पंक्ति के विद्वान् थे और खास करके अग्निकाय, वायुकाय आरंभ के कट्टर विरोधी थे और ब्रह्मचर्य के बड़े पक्षपाती थे । विचित्र प्रायश्चित्त-विधान - "जेसिं च णं वदताण वा, पडिकमंताण वा, दीहं, मजारं वा छिन्दिऊण गयं हवेजा तेसिं च णं लोयकरणं, अण्णत्थ गमणं तम्माणं उग्गतवाभिरमणं एयाई ग कुव्वंतिं तत्र गच्छवज्भे, जेणं तु महोवसग्गसाहगं उप्पादयं दुनिभित्तम मंगला वहं हविया । " "सोवाहणी परिसकज, उवट्ठावणं, उवाहणाओ ण पडिगाहेजा खवणं ! तारिसे गं संविहाणगे उवाहरणाश्रो ग परिभुजेजा खवणं ।” " चे एहि अदि एहिं पडिकमेज, चउत्थं एत्थं च अवसरं विष्णेयं, पडिक्कमिऊणं च विहीए रयणीए पढमजामं अणूणगं सज्झायं न करेजा दुवालसं, पढमपोरिसीए अइक 'ताए संथारगं संदिसावेज्जा छठ, असंदिसाविएणं संथारगेणं संथारेज्जा चउत्थं, अपच्चुपेहिए थंडिल संथारेइ चउत्थं, दो उडं संथारेज्जा चउत्थं ।" अर्थ -- 'जिन वन्दन अथवा प्रतिक्रमण करने वालों के बीच में होकर सर्प अथवा बिल्ली निकल गई हो तो उनका लोच करना चाहिए, उनको उस स्थान से दूसरे स्थान चले जाना चाहिए और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy