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११२ विद्धं से भयवं केणं अट्टेणं एवं वुच्चइ, गोयमा ! जो णं सव्वावस्सगकालाणुपेही भिक्खू णं रोट्टज्माणरागदोसकमाय गारवममकाराइसु णं अणेगपमायालंबणेसु च सवभावभावंतरंतरेहि ण अचंतविप्पमुक्को भवेजा, केवलं तु नाण-दंसण-चारित्त-तयोकम्भमज्झायज्झाणसद्धम्मावस्सगेसु अच्चतं अणिगूहियबलवीरियपरकमो सम्मं अभिरमेज्जा, जाव ण सद्धम्मावस्सगेसु अमिरमेजा ताव ण सुसंघडासदारे हवेजा, जाव णं सुसंवुडासवदारे हवेजा ताव ण सजीववीरिएण अणाइभवगहणसंचियाण दुदृहकम्मरासीण एगणिहवणेक्कबद्धलक्खो अहाकमेण झाणिरुद्धजोगो भवित्ताणं निदट्ठासेसम्मिधणो विमुक्कजाइजरामरणचउगइसंसारपासबंधवन्धणो य सम्बदुक्खविमोक्खतेलोक्कसिहरनिवासी भवेजा, एएणं अटेणं गोयमा ? एवं वुच्चइ जहाणं एत्थ चेव पढमपए अबसेलाई पाच्छित्तपयाई अंतरोगयाई समणु विद्धं (द्धाणि)।"
अर्थ-भगवान् ! अब प्रायश्चित्त का दूसरा पद कौन सा है ? उत्तर-गौतम ! प्रायश्चित्त का दूसरा तीसरा, चौथा, पांचवां यावत् संख्यातीतवां प्रायश्चित्त पद यहां प्रथम प्रायश्चित्त पद में अन्तर्गत हो गये हैं, अन्योन्य विद्ध हैं। भगवान् ! किस कारण से यह कहा जाता है ? उत्तर-गौतम ! सर्वावश्यकों के काल का अनुप्रेक्षक भिक्षु रौद्र, आर्तध्यान, राग, द्वेष, कषाय, गौरव, ममकारादि से तथा अनेक प्रमादालंबनों से सर्वभाव-भावान्तरों से विमुक्त हो जाता है, मात्र ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप-कर्म-स्वाध्याय-ध्यान-सद्धर्मावश्यकों में अत्यन्त बल-वीर्य-पराक्रम को लगाकर इनमें अभिरमण करता है, जब तक वह सद्धर्मावश्यक कामों में लीन रहता है तब तक वह स्वजीव-वीर्य से अनादिभवसँचित दुष्ट आठ कर्म राशियों के कर्मक्षय में लक्ष्य रखता है, क्रमश: ध्यान से योगनिरोध कर संपूर्ण कर्मांशो से मुक्त होकर जन्मजरामरणचतुर्गतिसंसार
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