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________________ ११३ के पाश बन्धनों को छोड़ कर सर्वदुःखों से मुक्त त्रैलोक्यशिखरनिवासी हो जाता है । इस कारण से हे गौतम ! यह कहा जाता है कि सर्व प्रायश्चित्त पद प्रथम प्रायश्चित्त पद के अन्तर्गत हो जाते हैं, जिन्हें सर्वविद् ज्ञानी जानते हैं । प्रायश्चित्त दान में वैधता - " जे केई भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय विरय-पडिहयपच्चकखापावकम्मे दिक्खादिणगपभिईओ अदियहं जावजीवाभिग्गहेणं सुविसत्थे भत्तिभर निन्भरे जहुत्त विहीए सुत्तत्थमणुसरमाणे अणण्णमाणसे गग्गचित्ते तग्गयमाणससुहज्भवसाए, थयथुईहिंग ते कालियं चेइए वंदेजा तस्स णं एगाए वाराए खवणं पायच्छित्तं उवइसेजा, बीयाए छेयं, तइयाए उवठावणं, श्रविहीए चेहयाई वंदे 7 पारंचियं, विहीर चेहयाई वंदेमाणो असं असद्ध संजणे इइ काऊणं । जो पुरा हरियाणि वा, बीयाणि वा, पुप्फाणि वा, फलाणि वा पूयंट्ठाए वा, महिमट्ठाए वा सोभट्ठाए वा, संघट्टे वा, संघट्टावैज्ज वा छिंदेज वा द्विदावेज वा संघट्टिताणि वा छिंदिज ताणि वा परेहिं समजाज वा, एएस सव्वेसु उचट्ठावणं, खमणं, चउत्थं श्रायंबिलं, एक्कासणगं, निगइयं, गाढागायढभेदेणं जहा संखेणं णेयं । " Jain Education International - अर्थ - 'जो कोई भिक्षु वा भिक्षुणी जो संयत और विरत है, जिसने पाप कर्म को हटाकर उसका प्रत्याख्यान किया है, दीक्षा दिन से लेकर प्रति दिन यावज्जीव के अभिग्रह से सुविश्वस्तभाव से भक्ति में तत्पर रहता हुआ यथाविधि सूत्रार्थ को - याद करता हुआ अनन्य मन एकाग्रचित्त और तद्गतमन और शुभाध्यवसाय वाला होकर स्तव स्तुतियों से त्रिकाल देववन्दन न करे उसे एक बार में उपवास प्रायश्चित्त का उपदेश करना, दूसरी बार छेद, तीसरी वार छेदोपस्थापना प्रायश्चित्त देना, अविधि से 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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