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प्रायश्चित्त-पद
अध्ययन
महानिशीथ का सप्तम चिदणा-पडिकमणं, जीवाजीवाइतत्तसम्भाव" इस सूत्र खंड से शुरू होता है, यह अध्ययन प्रायश्चित्त पदों का विधायक है, लेखक ने पाराञ्चित तक के प्रायश्चित्तों की सूचना तक की है और प्रायश्चित्त पदों को संख्यातीत लिखा है, जैन परिभाषा के अनुसार संख्यातीत शब्द को असंख्यात न मानकर " अतिसंख्यक" अर्थ में लेना चाहिए, क्योंकि प्रायश्चित्त पद संख्यात" होते हैं, असंख्यात नहीं, प्रायश्चित्त सूत्र की स्थिति कब तक रहेगी ? प्रायश्चित्त पद कितने हैं ? प्रयाश्चित पदों में प्रथम पद कौनसा है ? इत्यादि प्रश्नोत्तरों द्वारा निरूपण करते हुए संदर्भकार लिखते हैं
"से भयवं केasयं कालं जाव इमस्सणं पायच्छित्त सुस्साट्टावणं वहिही ? गोयमा ! जाव णं कक्की नाम रायाणे हि गच्छिय एक्कजिणाययणमडियं वसुहं, सिरिप्पभे अणगारे भववं उद्धं पुच्छा - गोयमा ! उड् केई एरिसे पुण्णभावे होही, जस्स णं इणमो सुवक्खंधं उवइसेजा ।"
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अर्थ - 'भगवन् ! कितने समय तक इस प्रायश्चित्त सूत्र की प्रतिष्ठा चालू रहेगी ? भगवान ने कहा- गौतम ! कक्क नाम राजा के मरण के बाद श्रीप्रभ अनगार के समय में पृथ्वी केवल जिन चैत्य मंडित होगी, तब तक, गौतम ने पूछा - भगवन् ! बाद में ?, भगवान ने कहा- गौतम ! बाद में ऐसा कोई पुण्यशाली पुरुष नहीं होगा, जिसे कि इस श्रुतस्कन्ध का उपदेश दिया जाये ।
" से भववं केाई पायच्छित्तस्स णं पयाई ! गोयमा ! संखाईयाई पायच्चित्तस्स णं पवाई, से भयवं तेसिं गं संखाईया पायच्छित्तपया किं तं पदम पायच्छित्तस्स णं पयं, गोयमा ! पदिय करियं से भयवं किं तं पइदिणकिरियं, गोयमा । जमण समया हरिण सापाणोवरम जावानुट्ठेयन्त्राणि संखेजाणि
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