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________________ १०५ परवर्ती ग्रन्थ जो उक्त आकरग्रन्थों के आधार से बने हैं, ये सभी सूत्र, इनकी पंचांगियां और इनके आधार से बने संक्षिप्त ग्रन्थ एक दूसरे से मिलते हैं, परस्पर विरुद्ध नहीं जाते, पर महानिशीथ का मार्ग उन सब से निराला है, महानिशीथ का प्रायश्चित्त विधान जो प्रस्तुत निबन्ध के सातवें आठवें अध्ययनों में दिया है, बहुधा अन्य सूत्रोक्त प्रायश्चित्तविधानों से विरुद्ध पड़ता है, इसके प्रायश्चित्त विधान को पिछले श्राचार्यों ने मान्य ही नहीं किया यह निश्चित है, प्रामाणिक ग्रन्थ पर उसके निर्माण काल के बाद लगभग दो सौ वर्ष के पहले या कुछ पीछे भी प्राकृत भाष्य चूर्णि और संग्रहणी आदि व्याख्यांग बन जाते थे, परन्तु आज तक महानिशीथ पर उक्त व्याख्यांगों में से एक भी नहीं बना इससे सिद्ध है कि प्रस्तुत महानिशीथ को हमारे पूर्वाचार्यों ने मान्य नहीं किया था और इसमें विहित प्रायश्चित्त को भी गीतार्थों ने मान्य नहीं किया था, कम से कम एक हजार वर्ष से भी पुराने महानिशीथ पर आज तक भाष्य, चूर्णि, संग्रहणी आदि का न बनना यही सूचित करता है कि यह संदर्भ कदापि सर्वमान्य नहीं हुआ था और न आज ही सर्व मान्य है । सर्व प्रथम अंचलगच्छ के आचार्यों ने अप्रामाणिक उद्घोषित किया था, बाद में पौर्णमिकों, साधु पौर्णमिकों आदि ने इसको प्रामाणिक मानने से इन्कार किया था, इससे खास आपत्तिजनक बातों को हटाकर ३४०० सौ श्लोक परिमित महानिशीथ की लघुवा चना तैयार की तो किसीने ४२०० श्लोक परिमित मध्यमवाचना, परन्तु ग्राज उक्त दो वाचनाओं में से एक भी वाचना उपलब्ध नहीं होती, वर्तमान समय में महानिशीथ की एक बृहद् वाचना ही मिलती है जो, ४५४४ श्लोकात्मिका है, विक्रम की चौदहवीं शती के ताडपत्रीय सूची पत्रों में महानिशीथ की तीनों वाचनाओं के उल्लेख मिलते हैं । महानिशीथ को कैसे गुरु को गच्छति बनाना चाहिए ? - "से भयवं केरिसगुणजुत्तस्स खं गुरुणो गच्छनिक्खेवं काय ? गोयमा ? जे गं सुसीले जे गं दढव्वर, जेणं दढचारिते, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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