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________________ "एस मा गच्छति एत्थं चिताणेव गोयमा । घोरं चरिऊण पायच्छित्तं, संविग्गोऽम्हेहिं भासियं ॥ घोरवीरतवं काउं, असुहं कम्मं खवेत्तु य । सुकज्झाणे समारुहिय, केवलं पप्प सिज्झिही || वियारिया | ता गोयhroori बहूवाए लिंगं गुरुस्स अप्पेउ, नंदिसेणेण जह कयं ॥" · अर्थ -- 'हे गौतम हमारे यहां रहते नन्दीषेण बाहर नहीं निकलेगा पर हमारा कहा हुआ कठोर और वीर सेव्य तप कर संविग्नभाव द्वारा अशुभ कर्मों का क्षय कर शुभ ध्यान में आरूढ़ होकर केवलज्ञान को पाकर अन्त में नन्दीषेण सिद्धिपद को प्राप्त करेगा । इस दृष्टान्त से हे गौतम ! विचलितचित्त हुए साधु को उक्त अनेक उपायों से संयम की रक्षा करनी चाहिए और किसी भी उपाय से आत्म शान्ति न होने पर साधु वेष गुरु को अर्पण करके स्वयं दूर देश में जाकर जीवन बिताये जैसे कि नन्दीषेण ने किया । १०४ 1 Jain Education International नन्दीषेण का ही नहीं जितने भी महानिशीथ में साधु साध्वियों के अथवा गृहस्थों के दृष्टान्त उपलब्ध होते हैं, एक दम नवीन प्रतीत होते हैं, जहां तक हमने देखा है प्राचीन श्वेताम्बर साहित्य में ये दृष्टान्त दृष्टिगोचर नहीं होते, ग्यारहवीं शती के बाद के ग्रन्थों में इनमें के कुछेक दृष्टान्त देखे जाते हैं जो महानिशीथ के इस संदर्भ से लिये हों ऐसा ज्ञात होता है, ये दृष्टान्त अतिशयोक्ति पूर्ण और उत्सर्गोत्सर्ग मार्ग का प्रतिपादन करने वाले हैं, जिस समय शिथिलाचार पराकाष्टा को पहुंच चुका था, उस समय उसके विरोध में लिखे गये साहित्य में अतिशयोक्तियों का होना स्वाभाविक है, परन्तु अन्य सूत्रोक्त सैद्धान्तिक बातों से विरुद्ध जाना यह अक्षन्तव्य है, कल्पाध्ययन, व्यवहाराध्ययन और निशीथाध्ययन जैनश्रमण श्रमणियों के आचार-विचार विषयक आलोचना- प्रायश्चित्त के आकर ग्रन्थ हैं, पंच कल्प भाष्य, जीतकल्प, जीतकल्प भाष्य आदि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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