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में जाने की सोच रहा हूँ, नन्दीषण के संसारी परिवार को देखने मात्र से उसको चित्त स्थिर हो गया और अपनी मानसिक वृत्तियों की हकीकत गुरु के आगे प्रकट कर मिथ्या दुष्कृत किया।
नन्दीषेण की प्रतिबोध शक्ति''एवं सो पेम्मपासेहिं, बद्धोऽवि सावगत्तणं । जहोवइठं करेमाणो, दस अहिए व दिणे दिणे ॥ पडियोहिऊण संविग्गे, गुरुपामूलं पवेसइ । संपयं बोहिओ सोवि, दुभहेण जहा तुमं ।। धम्मं लोगस्स साहेसि, अत्तकमि मुज्झसि । नूणं विकणुयं धम्मं, जं सयं णाणुचेट्ठसि ।। एवं सो वयणं सोचा, दुमुहस्स सुभासियं । थर थर थरस्स कंपंतो, निन्दिउ गरहिउ चिरं । हा हा हा हा अकज्ज मे, भट्टसीलेण किं कयं । जेणं तु मुत्तो अप्पसरे, गुडिओऽसुइकिमी जहा ।"
अर्थ-'इस प्रकार वह प्रेम के पाशों में बंधा हुआ भी श्रावकपन यथार्थ पालता हुआ प्रतिदिन दश दश अथवा दश से अधिक को प्रतिबोध देकर वैरागियों को गुरु के पास भेजता था, एक दिन दूसरे को प्रतिबोध देते हुए नन्दीषण को एक दुर्मुख ने प्रतिबोध किया, उसने कहा--तुम दूसरों को तो प्रतिबोध करते हो और अपने खुद के कामों में मुंझाते हो । क्या तुमने धर्म को विक्रेय पदार्थ समझ रक्खा है जो दूसरों को देते रहते हो और स्वयं लेने की चेष्टा नहीं करते । इस प्रकार का दुर्मुख का सुभाषित वचन सुनकर नन्दीषेण थर थर कांपने लगा और देर तक अपनी निन्दा गर्दा करता हुआ बोला-'हाय हाय मेरे अकार्य को धिक्कार हो, शील से भ्रष्ट होकर मैंने यह क्या किया ! अल्प जल में गिरकर कृमि जैसे कीचड़ में लिपट जाता है वैसे ही मैं कृमि की तरह अशुचि में लिपट गया हूं।' १४
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