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अर्थ – 'धिक् धिक् धिक् धिक् भाग्यहीन मैंने यह क्या किया ? जात्य सुर्वण सदृश आत्मा को मैंने अपवित्र मेले के सदृश बना लिया है, जब तक इस क्षण भंगुर शरीर का विनाश नहीं हो जाता तब तक मैं तीर्थंकर चरणों में जाकर प्रायश्चित्त कर लूं ।' नन्दीषेण के वृत्त में से जो नवीन बातें उपलब्ध होती हैं वे ये हैं
(१) नन्दीषेण को यहां दशपूर्वी कहा है, दशपूर्वधरों की गणना आगम व्यवहारियों में की गई है । आगम-व्यवहारी उत्कृष्ट गीतार्थ नन्दीषेण के जीवन में उक्त प्रकार की घटना घटित होना संभवित है या नहीं इस बात पर विद्वानों को गंभीरता पूर्वक विचार करना चाहिए । आवश्यक चूर्णि और हेमचन्द्रीय वीर चरित्र में आने वाला नन्दीषेण चरित्र उक्त चरित्र से बिल्कुल नहीं मिलता, यहां नन्दीषेण को चरम शरीरी अर्थात् इसी भव में मोक्षगामी बताया है, तब आवश्यक चूर्णि आदि में नन्दीषेण मुनि का अनुत्तरोपपाती देव होना लिखा है, नन्दीषेण के विषय में आवश्यक चूर्णि में निम्नलिखे अनुसार वृतान्त उपलब्ध होता है
" नन्दीषेण मुनि के एक शिष्य का मन लगता था - नन्दीषेणजी के प्रतिबोध देने पर भी चारित्र छोड़कर गृहस्थाश्रम में चले जाने की चिन्ता में था, यह परिस्थिति जानकर मुनि नन्दीषेणजी सपरिवार राजगृह के परिसर में विचरे, राजकुटुम्ब और नन्दीषेणजी का परिवार सब वन्दनार्थ मुनियों के उतारे पर गये, परिणीत और परित्यक्ता नन्दीषेण की रानियां वन्दनार्थ आईं, सभी राजकुमारियां युवतियां और रूपसुन्दरियां थीं, अन्यान्य साधुओं की बातों से नन्दीषेण के उस शिष्य को पता लगा कि श्वेत वस्त्रधारिणी सभी स्त्रियां मेरे गुरु द्वारा परित्यक्ता रानियां हैं, जिनका रूप सौन्दर्य स्वर्गीय अप्सराओं से भी बढ़कर है, ऐसा सौन्दर्यनिधान परिवार छोड़कर मेरे गुरु महाराज संयमी बने हैं तथापि संसार की बात तक नहीं करते तब मैंने तो पीछे छोड़ा ही क्या है ? कि जिसके मोह से खींचा हुआ संसार
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संयममार्ग में नहीं उनका एक शिष्य
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