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भोग रहा है । गौतम ने पूछा - भगवन् ! नन्दीषेण ने भोगफल कर्म को हटाने के लिए क्या क्या उपाय किये और उसमें वह निष्फल हुआ, भगवान ने कहा- गौतम ! वे उपाय ये थे जो केवल ज्ञानियों ने बताए थे । विषयों का उदय होने पर मुनि आठ गुणा घोर तप करना शुरू करे, पर्वत के शिखर से गिरकर, विष भक्षण कर अथवा गला में पाश डालकर मरने की चेष्टा करे, पर चारित्र विराधना करने को तैयार न हो, उक्त उपायों से होने की दशा में विषय पीडित मुनि आदि गुरु को सौंप कर दूर देश में किसी भी प्रवृत्ति का पता न चले, वहां पर निर्दय न बने ।
भी मरण न अपना साधु वेष- रजोहरण चला जाये जहां से उसकी रहता हुआ अणुव्रत पाले,
नन्दिषेण ने अनेक मरणोपायों के प्रयोग किये पर वह सफल नहीं हुआ, अन्त में पर्वत की चोटी से गिरने को वह चढ़ा किआकाशवाणी हुई- " न मरेज्ज तं" अर्थात् - तू नहीं मरेगा, नन्दीषेण अब टंकछिन पर्वत पर चढ़ा तो निम्न प्रकार की आकाशवाणी हुई—
"याले नत्थि ते मच्चू, चरिमं तुज्झ इमं तर । वा बद्धपुट्ठे भोगहल, वेइत्ता संजमं कुरु ।। "
अर्थ - "तेरा अकाल मरण नहीं है, तेरा यह अंतिम शरीर है । अतः बद्ध स्पष्ट भोगफल को खपा कर फिर संयम की आराधना कर, इस प्रकार चारण श्रमणों के दो बार निषेध करने पर नन्दीषेण ने अपना श्रमण चिन्ह गुरु के पास जाकर रख दिया और वह दूर देशान्तर चला गया ।
"धी धी धीधी अहरणेणं, पेच्छ जं जच्चकंचणश्रमत्तं गं असुईसरिसं खणभंगुरस्त देहस्स, जा विवती ण ता तित्थयरस्स पामूल पायच्छित्तं
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मेऽनुचिट्ठियं । कयं ॥
मे भवे ।
।
चरामिऽहं ||
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