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________________ ... अण्णं सो बहूवाए वा सुयनिवद्धे वियारिउ' । गुरुणो पायमूले मोत्तूणं, लिंगं निव्विप गयो || तं मे वयणं सरमाणो, दंतभग्गो सकम्मुणा । वेदेइ, भोगहलं कम्मं बध्धनिकाइयं || भयवं ते केरिसोवाए, सुयनिबद्धं वियारिए । जेणुज्झिय सुसामण्णं, अजवि पाणे वरेह सो ॥ एते ते गोयमोवाए, केवल हिं पवेइए | जहा विसयपराभूओ, सरेजा सुत्तमिमं मुणी || तं जहा - तबमट्ठगुणं घोरं, श्राढवेजा सुदुक्करं । जया विसए उइज्जति, पडणा-ऽणसण विसेवि वा ॥ काउ' बंधिऊण मरियव्वं नो चारितं विराहए । अह या न सक्केजा, ता गुरुणो लिंगं समधिया ॥ विदेसे जत्थ नागच्छे, पत्ती तथ गंतूण | अणुव्व पालेज, णो णं भविया गिद्ध धसे ॥" अर्थ - 'गौतम ने पूछा- हे भगवान् ! दशपूर्व के ज्ञाता, महायशस्वी नदीषेण ने दीक्षा को छोड़कर गणिका के घर में प्रवेश कर साधुवेश को छोड़ दिया ? भगवान ने कहा हे गौतम! मैंने नन्दीषेण को कहा था कि अब तक तुम्हारा भोगफल - कर्मशेष है, जो तुम्हारे चारित्र में स्खलना का कारण होगा, इस पर भी वह संसार से भयभीत होकर दीक्षित हो गया, पाताल ऊर्ध्व मुख हो जाय, स्वर्ग अधोमुख हो जाय, परन्तु केवलिकथित वचन कभी अन्यथा नहीं होता, नन्दीषेण के भोगफलक कर्म का उदय हुआ, गौतम ! नन्दीषेण ने शास्त्रोक्त अनेक उपाय किये, परन्तु एक भी सफल नहीं हुआ, जिससे श्रामण्य का त्याग कर साधुवेष गुरु के चरणों के पास छोड़कर वह दूर देश में चला गया और अब भी जीवित है, हमारे उस वचन का स्मरण करता हुआ, भग्नदन्त हाथी की तरह अपने बद्ध, स्पष्ट, निकाचित कर्म का फल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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