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नहीं था वहां लगभग २०० वर्षों के बाद विशेष चूणि में लघुमास प्रायश्चित्त का विधान आया ।
शाम के प्रतिक्रमण के पूर्व देववन्दन का सूचन तक आवश्यक चूर्णि में नहीं है, तब महानिशीथ में देववन्दन किये बिना प्रतिक्रमण करने वाले के लिए चतुर्थभक्त (एक उपवास) का प्रायश्चित्त लिखा, इस विधान पर से जो फलितार्थ निकला वह यह कि सभी प्रकार के धार्मिक विधान प्रारम्भ में सीधे और सरल होते हैं, परन्तु उनके रूढ होने के बाद प्रतिव्यक्ति नये मार्ग प्रचलित न हों और सभी आराधक एक ही प्राचीन मार्ग पर चला करें इस आशय से प्रायश्चित्तों की सृष्टि हुई और इस दण्ड नीति को लक्ष्य में रखते हुए निर्बल मानसिक वृत्ति वाले साधक मनुष्य अपने निर्दिष्ट मार्ग में चलते रहे हैं।
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