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"धांधा गर्दी" में लूटेरे अपना काम निकाल लिया करते थे, प्रतिदिन गांव, कस्बे लूटे जाते थे और सर्व साधारण की जबान पर चोरी और लूट की ही बातें होती रहती थीं जिन्हें धर्मोपदेशकों ने " स्तेन कथा" कहकर प्रसिद्ध किया । उक्त सूचनों-संकेतों और परिभाषाओं से प्रमाणित होता है कि महानिशीथ का रचना काल नवमी शती या दशमी का प्रारम्भ होना चाहिए और रचना प्रदेश दक्षिणा पथ होना चाहिए, सूत्रों में पेट के अर्थ में "उदर" अथवा " कुक्षि" शब्दों के प्रयोग होते हैं, परन्तु प्रस्तुत संदर्भ में "पेट" के अर्थ में अनेक बार "पोट्ट" शब्द का प्रयोग किया है, इससे भी इस सन्दर्भ के निर्माता की "महाराष्ट्रीयता " ज्ञात होती है । अनुयोग के स्थान में दिगम्बर सम्प्रदाय के " धवला" "जयधवला " आदि ग्रन्थों में "अणियोग" शब्द प्रयुक्त हुआ है, उसी प्रकार प्रस्तुत महानिशीथ में भी " अनुयोग द्वार" के स्थान में सर्वत्र "अणिओग दार" शब्द का प्रयोग हुआ है, जो इस ग्रन्थ की "महाराष्ट्रीयता" सूचित करता है ।
आवश्यक - चूर्णिकार ने रात्रिक प्रतिक्रमण के अन्त में लिखा है— " जइ चेइयाणि अत्थि तो वंदंति" अर्थात् रात्रि के प्रतिक्रमण की समाप्ति में "विशाल लोचनदलं" इत्यादि वर्धमान स्तुतित्रय कथन के बाद में यदि वहां जिन प्रतिमायें हों तो उनको वन्दन करें ।
उक्त प्रसंग में ही निशीथ विशेष चूर्णिकार ने लिखा है- " जइ चेइयाणि न वंदंति तो मासलहु" अर्थात् रात्रिक प्रतिक्रमण की समाप्ति में "विशाल लोचन दलं" इत्यादि वर्धमान स्तुतित्रय कथन के बाद यदि वहां जिन प्रतिमायें हों और उनको वन्दन न करे तो लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त हो ।'
महानिशीथकार शाम के प्रतिक्रमण के सम्बन्ध में लिखते हैं"चेयेहि अदिएहि पडिक्कमे चउत्थं" अर्थात् -- देववन्दन किये बिना शाम का प्रतिक्रमण करें तो चतुर्थभक्त ( एक उपवास) का प्रायश्चित्त हो, जहां आवश्यक चूर्णि में प्रायश्चित्त का नाम ही
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