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निच्छयो ३ बाढं ३ सव्वहा सधपयारेहिणं आयहियठीणं निसिद्धत्ति ।" ___अर्थात्-'हे गौतम ! प्रवचन उत्सर्गापवादों पर स्थित है और अनेकान्त रूप से इसका प्रज्ञापन होता है, एकान्तरूप से नहीं, इतना विशेष है कि कच्चे जल का पीना, अग्नि का आरम्भ करना और मैथुन सेवन ये तीन कार्य एकान्त से-निश्चय से दृढता-से-सर्वथासर्वप्रकारों से आत्महितार्थियों को निषिद्ध हैं।
उपर्युक्त कथन से इतना तो सिद्ध होता है कि उस समय सचित्त जल का पान अथवा अन्य प्रकार से सचित्त जल का उपयोग, अग्नि का आरंभ-दीवाबत्ती के रूप में अथवा शीत रक्षार्थ और ब्रह्मचर्य खण्डन इन तीन बातों के सम्बन्ध में लेखक एकान्त निषिद्ध मार्ग का सूचन करते हैं, जबकि जैनसिद्धान्त केवल मैथुन को निरपवाद बताता है, जल और अग्न्यारंभ से प्रथम महाव्रत में भंग अवश्य लगता है, परन्तु चतुर्थ महाव्रत को छोड़ शेष सभी महावतों में अपवाद माने गये हैं उक्त महानिशीथ के पाठ में सचित्त जल तथा अग्न्यारंभ को जो एकान्त निषिद्ध लिखा है उसका कारण यही है कि उस काल में पार्श्वस्थादि जैन श्रमणों में उक्त दो बातों का प्रचार ज्यादा बढ़ गया था, इसी कारण जलारम्भ तथा अग्न्यारम्भ को एकान्त निषिद्ध लिखा है, पर जैन सिद्धान्त इस प्रकार का नहीं है।
उस काल में प्रार्याओं द्वारा लाया गया, वस्त्र, पात्र, आहार, पानी आदि आचार्य महत्तर आदि लेने लगे थे इसी से सूत्रकार ने इस पद्धति का जोरों से विरोध किया है, जैन निर्ग्रन्थों की उपर्युक्त दशा विक्रम की नवमी दशमी शती का सूचन करती है, यद्यपि विक्रम की पांचवीं शती में जैन श्रमणों में पर्याप्त शैथिल्य बढ़ चुका था, तथापि महानिशीथोक्त अनेक बातें नवमी शती के पूर्वकाल में नहीं थीं, जैसे-मयार-जयारुच्चारणाई,+संयतीकप्पं+अज्जा कप्पं-सील+तव-दाण भावणा+(मकार-जकार आदि गालि प्रदान, संयतीकल्प, आर्याकल्प, शील-तप-दान भावनात्मक चतुर्विध
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