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हरिभद्रसूरिजी तथा सिद्धसेन दिवाकर आदि के जो नाम लिखे गये हैं वे विश्वास करने योग्य नहीं हैं, यह पहले कहा जा चुका है।
(५) अध्ययनः-महानिशीथ का पांचवां अध्ययन “प्रत्थेगे गोयमा पाणी, जे ते उम्मग्गपट्टियं" इस सूत्र से प्रारम्भ होता है, इस अध्ययन में गच्छ के अतिरिक्त अयोग्य दीक्षा, धर्मचक्रतीर्थ की यात्रा आदि अनेक बातों का निरूपण किया है, इस अध्ययन का नाम "द्वादशांगश्रुतज्ञाननवीनतसार" रक्खा है, "महानिसीहसुयक्खंधस्स दुवालसंगसुयनाणस्स णवणीदसारं णाम पंचम अज्झयणं" यह नाम निस्सार है, शिथिल आचार्यों तथा उनके गच्छों के वर्णन को "श्रुतज्ञान का नवनीत" कहना कुछ भी वास्तविकता नहीं रखता।
पंचम अध्ययन में सावधाचार्य का वृतान्त दिया है और जरा से अस्पष्ट भाषण से उन्हें अनन्तसंसारी बना दिया है, इस अध्ययन में ब्रह्मचर्य पर विशेष जोर दिया है, “संयती-कल्प' अर्थात् साध्वी का लाया हुआ वस्त्र, पात्र, आहार, पानी लेना इसका कड़ा विरोध किया है, अप्काय तथा वायुकाय की विराधना और ब्रह्मचर्य के खण्डन का बार बार विरोध किया है, इससे ध्वनित होता है कि उस समय में उक्त बातों के सम्बन्ध में शिथिलाचार हद से ज्यादा बढ चुका था।
"जस्थित्थी करफरिसं, अन्तरिमं कारणेवि उप्पण्णे। अरहावि करेज सयं, तं गच्छं मूलगुणमुक्कं ।" अर्थात्- 'जहां कारण विशेष से वस्त्रादि के अन्तर से भी आचार्य तो क्या स्वयं जिन भी स्त्री का हस्त स्पर्श करते हों तो उस गच्छ को मूल गुणों से हीन समझना चाहिए।'
"गोयमा उसग्गाववाएहिं चेव पवयणं ठियं, अणेगंतं च पण्णविजइ णो णं एगंतं, णवरं आउकाय-परिभोगं, तेउकाय समारंभं मेहुणसेवणं च, एते तो दोसाणवरं एगंतेणं ३
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