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________________ ६२ श्रतस्कन्धे अर्थाः सुद्धतिशयेन सातिशयानि गणधरोक्तानि चेह वचनानि, तदेवं स्थिते न किंचिदाशंकनीयम् ।" अर्थात्---'यहां चौथे अध्ययन में कई सैद्धान्तिक विद्वान् कतिपय आलापकों पर श्रद्धा नहीं करते और उनके श्रद्धा न करने से हमको भी उन पर श्रद्धा नहीं होती, ऐसा हरिभद्रसूरि कहते हैं, परन्तु सारा चौथा अध्ययन अथवा अन्य अध्ययन ऐसे नहीं हैं, अर्थात् चौथे अध्ययन के ही कुछ आलापक अश्रद्धेय हैं, क्योंकि स्थानांग, समवायांग, जीवाभिगम, प्रज्ञापनादि सूत्रों में ये बातें कहीं नहीं लिखीं-जैसे प्रतिसंतापस्थल आस्थित तद्गुफावासी मनुष्य, उनमें परमाधार्मिकों का सात आठ बार उत्पन्न होना, उनका कठोर वज्रशिला के पुडों में पीडित होने पर भी वर्ष के पहले प्राणों का न निकलना इत्यादि, 'वृद्धों का कथन तो यह है कि यह सूत्र आर्ष है, इसमें कुछ भी विकृति प्रविष्ट नहीं हुई, इस श्रुत स्कन्ध में भरपूर अर्थ भरे पड़े हैं और इसमें विशिष्ट प्रकार के गणधरोक्त वचन हैं इसलिए इस विषय में कुछ भी शंका नहीं करनी चाहिए।' भले ही लेखक अथवा बाद के महानिशीथ के प्रशंसक आचार्य कहें कि इसमें कुछ भी शंकनीय विषय नहीं है, पर सारे सूत्र का अवलोकन पढ़कर पाठक महोदय यह समझ सकेंगे कि वास्तव में नन्दीसूत्र सूचित यह महानिशीथ नहीं है, वृद्धवाद का नाम लेकर चतुर्थाध्ययनोक्त बातों को मान लेना एक बात है और परीक्षा की कसौटी पर कसकर इन बातों को प्रामाणिक ठहराना दूसरी, एक नहीं पच्चासों बातें महानिशीथ में ऐसी हैं जो शास्त्रान्तरों के प्रमाणों से सिद्ध नहीं की जा सकतीं और इसका प्रायश्चित्त निरूपण तो किसी भी छेदसूत्रोक्त प्रायश्चित्त से मेल ही नहीं खाता, न प्रायश्चित्त के निरूपणों में छेदसूत्रोक्त परिभाषाओं का उपयोग ही इस सूत्र में संदर्भकार ने किया है, इससे भी प्रमाणित होता है कि प्रस्तुत महानिशीथ खंडित महानिशीथ का अवशेष नहीं, किन्तु एक स्वतन्त्र कृति है कि जिसके कर्ता का नाम तक अज्ञात है, आचार्य श्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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