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द्वादशाग श्रुत समुद्र से अंग, उपांग, श्रुतस्कन्ध, अध्ययन, उद्देशकों का चयन करके कुछ कुछ सम्बन्धित पाठ लेकर इसे व्यवस्थित कर लेखबद्ध किया है, अपना काव्य नहीं किया ।'
(४) अध्ययन: - - तृतीयाध्ययन की समाप्ति होने के बाद चतुर्थ अध्ययन के प्रारम्भ से ही "अत्थि इहेव भारहे वासे मगहा जणवओ” इस सूत्र का प्रारम्भ कर सुमति नागिल का चरित्र दिया है, सुमति नागिल दोनों श्रावक थे, नागिल ने श्री नेमिनाथ से साधुओं का आचार सुना था, सुमति ने सामान्य रूप से साध्वाचार जानते हुए भी शिथिलाचार की उपेक्षा की, नागिल ने शिथिलाचारियों की संगति न करने पर जोर दिया, नागिल उत्तम गति का भागी हुआ, तब सुमति ने संसार भ्रमण बढाया ।
इसी अध्ययन में जल - मनुष्यों की कथा सविस्तर लिखी है, निह्नवों और परपाखंड प्रशंसकों की गति परमाधार्मिकों में होने का लिखा है ।
चतुर्थाध्ययन की समाप्ति में निम्नोद्धृत संस्कृतगद्य लिखा मिलता है
" अत्र चतुर्थाध्ययने बहवः सैद्धान्तिकाः कवि प्रलाप का (काँश्चिदालापकान् ) न सम्यक् श्रदधत्येव तैश्चाश्रद्धधानैर स्माकमपि न सम्यक् श्रद्धानं इत्याह हरिभद्रसूरिः न पुनः सर्वमेवेदं चतुर्थाध्ययनं अन्यान्यपि वा अध्ययनानि, अस्यैव कतिपयैरालापकैरश्रद्धानमित्यर्थः । यत् स्थान- समवायजीवाभिगम - प्रज्ञापनादिषु न कथंचिदिदमाचख्ये यथा प्रतिसंताप स्थलमस्थितता ( १ ) तद् गुहावासिनस्तु मनुजास्तेषु च परमा धार्मिकाणां पुनः पुनः सप्ताष्टवारान् यावदुपपातस्तेषां च तैर्दा रुणैर्वत्र शिलाघर संप टैर्मिलितानां परिपीड्यमानानामपि संवत्सरं यावत्प्राणव्यापत्तिर्न भवतीति । वृद्धवादस्तु पुनर्यथातावदिदमार्थं सूत्रं विकृतिर्नतावदत्र
प्रविष्ट,
प्रभूताश्चात्र
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