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________________ पालने वाले नहीं । स्वच्छंदों का अर्थ है-मार्ग को छोड़कर अपनी इच्छा से चलने वाले, शबलों के सम्बन्ध में लिखा नहीं जाता, क्योंकि ग्रन्थ का विस्तार हो जाने का भय है, भगवान ने भी इस प्रसंग पर कुशीलादिकों का अधिक वर्णन नहीं किया। ऊपर के वर्णन से स्वयं जान लेना' इत्यादि वचनों का सार देखने से यही ज्ञात होता है कि महानिशीथ सूत्र नहीं बल्कि एक प्रबन्ध है, सूत्रकार "ग्रन्थ विस्तार के भय से अधिक नहीं लिखा जाता।” इस प्रकार सूत्रों में कभी नहीं लिखते। "भगवान ने भी इस प्रसंग पर कुशीलादिक का अधिक वर्णन नहीं किया'' यह कथन महानिशीथ का असौत्रत्व प्रमाणित करता है, जो सूत्र गणधर रचित होता है उसमें "भगवान ने भी अधिक नहीं कहा" यह कभी नहीं लिखा जाता, भगवान तो अर्थों का भाषण करते हैं उन अर्थों को अभिव्यक्त करने वाले शब्दों में ग्रन्थित करना गणधरों का काम है, इसीलिए तो शास्त्रकार कहते हैं- "अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं" इस शास्त्रीय नियम को देखते हुए यही कहना पड़ता है कि महानिशीथ एक अर्वाचीन ग्रन्थ है, गणधर रचित सूत्र नहीं। तृतीय अध्ययन की समाप्ति में ग्रन्थकार लिखते हैं-- "एत्थं च जा जा कत्थइ अण्णण्णा वायणा सा सुमुणिय समयसारेहितो परोसेयव्या, जो मूलादरिसे चेव बहुगंथं विप्पणठं, तेहिं च जत्थ जत्थ संबन्धाणुलग्गं गंथं संबज्झइ तत्थ तत्थ बहुसुएहिं सुयहरेहिं संमिलिऊणं अंगोवंगदुवालसंगाओ सुय समुद्दामो अण्णमण्णअंगउवंगा सुयक्खंध-अज्झयण सगाणं समुच्चिणिऊण किंचि किंचि संवज्झमाणं एत्थं लिहियंति ण उण सकव्वं कयंति ।" __ अर्थात्- 'जहां जो जो कोई अन्यान्य वाचना भेद हैं, उन्हें आगम वेदी आचार्यों से समझ लेना चाहिए, क्योंकि पुस्तक की मूल प्रति में से ही खासा ग्रन्थ नष्ट हो गया है, जहां जहां सम्बन्धित पाठ देखे उन्हें बहुतेरे श्रुतधरों ने सम्मिलित होकर अंग-उपांगात्मक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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