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________________ ८८ हुआ, यद्यपि महानिशीथ सूत्र पहले भी था इसीलिए नन्दीसूत्र आदि में इसका नाम निर्देश हुआ है, इतना होने पर भी यह तो कहना पड़ेगा कि आज का महानिशीथ नन्दीसूत्रनिर्दिष्ट महानिशीथ नहीं है, इसमें सैकडों ऐसी बातें और परिभाषाएं उपलब्ध होती हैं जो इस कृति को विक्रम की नवमी शती से पहले की प्रमाणित नहीं होने देतीं। यहां हम महानिशीथोक्त तत्कालीन जैनश्रमणों की शिथिलप्रवृत्तियों के उद्धरण देंगे, जिन्हें पढ़कर पाठकगण स्वयं समझ सकेंगे कि वर्तमान महानिशीथ में दिया हुआ वर्णन विक्रम की किस शती के जैन श्रमणों को लागू हो सकता है। यों तो महानिशीथ के तृतीयाध्ययन में द्रव्य-भावस्तव, पिण्डविशुद्धि, पंचमंगलादिश्रुताध्ययन के समय किये जाते विनयोपधान आदि अनेक बातों का निरूपण किया है, परन्तु विशेष ध्यान देने योग्य तो कुगुरुओं का वर्णन है और उसमें भी विशेष आकर्षक वर्णन है-कुशीलों का, योंतो सूत्रकारने कुशील नामक साधुओं के २०० भेद बताये हैं, परन्तु यहां हम केवल शरीर कुशील का ही वर्णन देंगे । __"तहा सरीरकुसीले दुविहे-चेहा कुसीले, विभूसाकुसीले य, तत्थ जे भिक्खू, एयं किमिकलनिलयं सउणसाणाइभत्तं सडण-पडणविद्चसणधम्म असुई असासयं असारं सरीरगं आहारादिहिंणिच्च चेह्रज्जा, णो णं इणमो भवसयसुलद्धदंसणाइसमण्णिएणं सरीरेणं अच्चंत घोरवीरुग्गकट्ठयोरतव संजममणठेज्जा, से णं चेटठाकसीले ।" ____ अर्थ-'तथा शरीर-कुशील दो प्रकार के होते हैं, चेष्टा कुशील और विभूषा कुशील, जो भिक्षु इस कृमिसमूह के घर तथा पक्षी और कुत्तों के भोजन रूप शटन-पतन विध्वंसनधर्मक अपवित्र अशाश्वत और असार शरीर को आहारादि से बनाये रखने की नित्य चेष्टा करता है, परन्तु वह सैंकड़ों भवों के बाद प्राप्त ज्ञान दर्शनादिसमन्वित इस शरीर से अत्यन्त उग्र, घोर और कष्टकारक तप तथा संयममय अनुष्ठान नहीं करता इसलिए ऐसे भिक्षु को 'चेष्टाकुशील' कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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