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प्रतीत होने लगी थी, विक्रम की पांचवीं शती तक शिथिलाचारी पर्याप्त बढ़ चुके थे, फिर भी तब तक बहुमत में वैहारिक श्रमण संघ ही था, ज्यों ज्यों श्रमण समुदायों में शैथिल्य बढ़ता गया त्यों त्यों तत्कालीन युग प्रधानों ने अपने अपने समय में सुगमता पूर्वक संक्षेप में श्रमण अपना आचार मार्ग समझ सके इस दृष्टि से आगमों में से कल्प, व्यवहार आदि को पृथक् निर्माण किया, भगवन्त महावीर के निर्वाणानन्तर श्रमणों में आचार विषयक स्वल्प भी शिथिलता दृष्टिगोचर करके श्रुतधर आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी ने दशाश्रुतस्कन्ध, कल्पाध्ययन और व्यवहाराध्ययन का पूर्वश्रुत में से उद्धार करके श्रमण श्रमणियों का आचारमार्ग सुगम बना दिया था, परन्तु समय अवसर्पणशील था और मौर्यकाल से जैन श्रमण-श्रमणियों की संख्या में कल्पनातीत बाढ़ आयी हुई थी, परिणाम स्वरूप निर्ग्रन्थ श्रमणों के नियत आचारों में अनेक नवीन बातें घुसी और घुस रही थीं, परिणामस्वरूप जिन-निर्वाण की छठवीं शती में तत्कालीन युगप्रधान आचार्य श्री आर्यरक्षितजी ने निशीथाध्ययन का निर्माण किया और व्यवहाराध्ययन में आवश्यक नूतन सूत्रों के प्रक्षेप करके निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थिनियों के प्राचारमार्ग को सुदृढ़ बनाया और वह मार्ग सैकड़ों वर्षों तक सुरक्षित रहा, पर समय भी अपना काम कर रहा था, विक्रम की सातवीं शती तक उसमें अनेक ऐसी खराबियां उत्पन्न हुईं जो प्रतिदिन मार्ग को बिगाड़ रही थीं, इस बिगडती हुई परिस्थिति को देखकर सातवीं शती के सुविहित श्रुतधर श्री धर्मदासगणिजी ने "उपदेशमाला" नामक एक औपदेशिक प्रकरण का निर्माण करके शिथिलाचारियों को ललकारा, फिर भी शिथिलाचार का प्रवाह नियंत्रित नहीं हो सका, बीच बीच में त्यागमार्ग के प्रशंसक आचार्यादि विशिष्टव्यक्तियां शिथिलाचार को नियंत्रित करने के लिए भरपूर कोशिश करती रहीं, पर जहां प्रबल बांध टूट जाता है वहां फैलता हुआ जलप्रवाह किसी से नहीं रोका जा सकता, विक्रम की नवमी शती तक शिथिलाचार ने अपनी शक्ति का पूर्ण प्रदर्शन करा दिया, तब प्रस्तुत महानिशीथ का जन्म १२
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