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निबन्ध - निचय
के अनुयायी श्वेताम्बर सम्प्रदाय - प्रसिद्ध चौरासी बातों का खण्डन करते थे, उनमें से कुछ तो उनके अज्ञान से उत्पन्न हुई बातें थी, जैसे- " मुनिसुव्रत भगवान् के घोडा गणधर होने की, बाहुबलीजी के मुसलमान होने की बात" इत्यादि कई बातें श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित नहीं हैं, उन्हें होना बताकर लोगों को बहकाते थे, जिनका उपाध्यायजी ने सप्रमाण खण्डन करके बनारसी के अनुयायियों को निरुत्तर किया है ।
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टीका की समाप्ति में आपने एक प्रशस्ति दी है, जिसमें प्राचार्य विजयहीरसूरिजी विजयसेनसूरिजी विजयदेवसूरिजी और विजयसिंहसूरिजी का गुणगान किया है। इससे इतना ज्ञात होता है कि उपाध्यायजी की यह कृति विक्रम सं० १६८८ के पहले की है, क्योंकि प्राचार्य श्री विजयसिंहसूरिजी को गच्छानुज्ञा १६८४ में हुई थी और उसके बाद आप ४ वर्ष में ही स्वर्गवासी हो चुके थे, इससे निश्चित होता है कि यह ग्रन्थ विजयसिंहसूरिजी के जीवन काल में ही बना था ।
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उपाध्याय यशोविजयजी की "आध्यात्म -मत परीक्षा में बनारसीदास - जी और उनके अनुयायी " कुमारपाल" का नाम निर्देश किया गया है, तब उपाध्याय मेघविजयजी ने इस विषय में विशेष प्रकाश डाला है । आपने बनारसीदास के मत की उत्पत्ति का स्थान, उनका समय और उनके अनुयायियों के नाम लिखकर इन नवीन सम्प्रदाय वालों का विशेष परिचय कराया है । इनके कथनानुसार बनारसीदास "प्रागरा" के रहने वाले थे, ये जाति के दशा श्रीमाली थे, और सम्प्रदाय की दृष्टि से प्रतिक्रमण, पौषधादि धार्मिक क्रिया करने वाले खरतरगच्छ से श्रावक थे एक बार चऊविहार उपवास के साथ पौषध लिये धर्मशाला में रहे हुए थे, रात्रि के समय उनके मन में खानेपीने की इच्छा के सताने के कारण मानसिक कल्पना उत्पन्न हुई कि तपस्या वगैरह धार्मिक विधान करते हुए श्रावक के मन में खाने-पीने की इच्छा हो जाय तो उसको तपोनुष्ठान का फल मिल सकता है या नहीं । इस मानसिक शंका को बनारसीदासजी ने दूसरे दिन अपने गुरुजी से पूछा, तो भविष्य वश गुरु के मुख से निकला कि मन के परिणाम बदलने से अनुष्ठान का फल नहीं मिलता । मानसिक भावनाएं तो हर हालत में शुद्ध रहनी चाहिए, बस
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