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: १४ : क्ति-प्रबोध
(वारणारसीय-दिगम्बर मत खण्डन)
महामहोपाध्याय मेघविजयजी कृत स्वोपजवृत्तियुत । उपाध्याय यशोविजयजी के “अध्यात्म-मत-परीक्षा खण्डन" ग्रन्थ के बाद बनारसीय मल खण्डन में लिखा हुआ उपाध्याय मेघविजयजी का यह "युक्ति-प्रबोध' ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के लेखक ने अपनी इस कृति को नाटक का नाम दिया है, परन्तु ग्रन्थ में नाटक का कोई भी लक्षण नहीं है। मालूम होता है, उपाध्यायजी ने दिगम्बराचार्य अमृतचन्द्र ने जिस प्रकार अपनी टीका में "कुन्दकुन्द के प्राभृतों' को नाटकीय रूप देकर सटीक ग्रन्थ का नाम नाटक दिया है, उसी प्रकार बनारसीदासजी ने अपनी हिन्दी कति “समयसार" का नाटक नाम रखा है, उसी प्रकार उनकी देखादेखी उपा० मेघविजय जी ने भी अपने "युक्ति-प्रबोध" को नाटक के नाम से प्रसिद्ध किया है, परन्तु उक्त सभी ग्रन्थों के नामों के साथ "नाटक" शब्द देखकर किसी को भ्रम में नहीं पड़ना चाहिये, वास्तव में ये सभी ग्रन्थ खण्डन-मण्डन के हैं, थियेटर में खेलने के नाटक नहीं ।
उपाध्याय मेघविजयजी ने तीन विषयों पर मुख्य चर्चा की है, (१) स्त्रीनिर्वाण की, (२) केवली कवलाहार की और (३) वस्त्रधारी श्रमण के मोक्ष की। आपने युक्तियों और शास्त्र प्रमाणों से विषय का निरूपण किया है और आप इसमें सफल भी हुए हैं। कुन्दकुन्द के "प्राभृत'' नेमिचन्द्र के “गोम्मटसार" तथा अन्यान्य दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थों का प्रमाण देकर विषयों का सफलता पूर्वक प्रतिपादन किया है। इसके अतिरिक्त जिनजिन श्वेताम्बर मान्य बातों का बनारसीदास के अनुयायी विरोध करते थे उन सभी बातों का उपाध्यायजी ने सप्रमाण उत्तर दिया है, बनारसीदास
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