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निबन्ध-निचय
बनारसीदासजी को निश्चय मार्ग पकड़ने का सहारा मिल गया-"उन्होंने निश्चय किया कि आत्मिक भावनाओं की शुद्धि से ही आत्मा शुद्ध होता है, बाह्य क्रिया-अनुष्ठानों से नहीं" आपने इस निर्णय को अपने धर्म-मित्रों के सामने प्रकट किया, परिणाम स्वरूप बनारसीदासजी का साथ देने वाले कुछ गृहस्थ मिल गए, जिनके नाम-रूपचन्द्र पण्डित, चर्तुभुज, भगवतीदास, कुमारपाल और धर्मदास। इन पांचों ने बाह्यक्रिया-वगैरह का त्याग कर धार्मिक ग्रन्थों का पठन-पाठन करने और उनमें से जो बात अपने दिल में न अँचे उनका खण्डन करने का काम प्रारम्भ किया। परिणाम स्वरूप दिगम्बर भट्टारकों के पास रहने वाले धार्मिक उपकरण मोरपिच्छी, कमण्डलु, पुस्तक रखने का भी विरोध किया और श्वेताम्बर सम्प्रदाय की हजारों बातों में से चौरासी बातें ऐसी निकली जिसका वे खण्डन किया करते थे ।
बनारसीदास का प्रस्तुत अध्यात्म-मत विक्रम सं० १६८० में चला। इसके प्रचार के लिए बनारसीदास ने हिन्दी कवित्त में अमृतचन्द्राचार्य कृत "समयसार" की टीका के आधार पर “समयसार" नाटक की रचना की, जो विक्रम सं० १६९३ में समाप्त हुई थी।
बनारसीदासजी स्वयं निस्संतान थे, अतः उनकी मृत्यु के बाद उनके मत की बागडोर कूमारपाल ने ग्रहण की और इस मत के अनयायियों को अपने मत में स्थिर रखने के लिए इस मत का प्रचार करता रहा।
उपाध्याय श्री मेघविजयजो
उपाध्याय मेघविजयजी पूर्वावस्था में लुकागच्छ के प्राचार्य श्री मेघजी ऋषि के प्रशिष्य थे। आपकी दीक्षा आचार्य श्री विजयसेनसूरिजी के हाथ से विक्रम सं० १६५६ में हुई थी, आपके गुरु का नाम श्री कृपाविजयजी था, आप अच्छे विद्वान और ग्रन्थकार थे, आपने इस युक्ति-प्रबोध का निर्माणसमय नहीं बताया, परन्तु प्रशस्ति में आपने लिखा है--यह "युक्तिप्रबोध" की रचना आचार्य श्री विजयप्रभसूरि और उनके पट्टधर प्राचार्य श्री विजयरत्नसूरि के शासनकाल में हुई। इससे ज्ञात होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ
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