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उपाध्याय श्री यशोविजयजी कृत
स्वोपज्ञ टीका सहित
अध्यात्म-मत-परीक्षा
"अध्यात्म-मत-परीक्षा" उपाध्याय यशोविजयजी की एक प्रौढ़ कृति है। ग्रन्थ की मूल गाथाएँ एक सौ चौरासी हैं और इन पर उपाध्यायजी की स्वोपज्ञ विस्तृत टीका है, जो लगभग चार हजार से अधिक श्लोकों के परिमाण की होगी।
ग्रन्थ का नाम “अध्यात्म-मत-परीक्षा" रखने का खास कारण यह है कि उपाध्यायजी के समय में (विक्रम की १७वीं सदी में) दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार आदि ग्रन्थों के पढ़ने से अध्यात्म मार्ग की तरफ भुक कर कुछ श्वेताम्बर और कुछ दिगम्बर श्रावकों ने एक मण्डल कायम किया था, जो "आध्यात्मिक-मण्डल” के नाम से प्रसिद्ध हुआ था और इस मण्डल के प्रमुख "श्री बनारसीदासजी" एवं “कुमारपाल" आदि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के श्रावक थे। इस मण्डल में अन्य भी श्वेताम्बर श्रावक मिले थे, इसलिये उपाध्याय यशोविजयजी, उपाध्याय मेघविजयजी आदि तत्कालीन श्वेताम्बर विद्वानों ने इस मत के खण्डन में प्रवृत्ति की थी। उपाध्यायजी की “अध्यात्म-मत-परीक्षा" और उपाध्याय मेधविजयजी का "युक्ति प्रबोध" इसी मत के खण्डन में लिखे गए हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय के विद्वानों की तरफ से इस विषय का कोई ऊहापोह हुअा हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता। इसका कारण यही है कि इस मण्डल ने जो कुछ प्रचार किया, उसका मूलाधार दिगम्बर ग्रन्थ थे। अतः दिगम्बरों को आपत्ति उठाने का कोई कारण नहीं था। जब इस मण्डल की प्रवृत्तियों से तत्कालीन दिगम्बर भट्टारकों की टीका-टिप्पणियाँ होना शुरू हुआ तो दिगम्बर भट्टारक चौकन्ने हो गये। अपने भक्तों को इन आध्यात्मियों
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