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________________ ७८ : निबन्ध-निचय बताया है। इस सम्बन्ध में जीत-कल्प तथा व्यवहार-सूत्र के आधार से दो तीन यन्त्रक भी दे दिये हैं। छेद सूत्र पढ़ने के पहले यह उल्लास पढ़ा जाय तो छेद सूत्रों की दुर्गमता कुछ सुगम हो सकती है। इस उल्लास में आपने ३४३ गाथाओं में प्रायश्चितों का निरूपण किया है। ३. "गुरुतत्व विनिश्चय" के तृतीय उल्लास में आपने सुविहित साधुओं की पहिचान कराने के साथ पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, संसक्त और यथाच्छन्द नामों से शास्त्र में प्रसिद्ध पांच प्रकार के कुगुरुनों का निरूपण करके उनसे दूर रहने की सलाह दी है। इस उल्लास में आपने १८८ गाथाएँ रोकी हैं। ४. "गुरुतत्व विनिश्चय" का चतुर्थ उल्लास जैन सिद्धान्तोक्त पांच प्रकार के निर्गन्थों के वर्णन में रोका है। पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक नामक पांच निर्ग्रन्थों के निरूपण के साथ इनके साथ सम्बन्ध धराने वाली बहुत सी बातों का स्पष्टीकरण किया है। इस उल्लास में १६६ गाथाएँ बनाकर आपने इस ग्रन्थ की समाप्ति की है। उपाध्यायजी ने इस ग्रन्थ के प्रत्येक उल्लास के अन्त में अपने प्रगुरू, गुरू, गुरूभाई आदि का स्मरण किया है, परन्तु आश्चर्य तो यह है कि इतने बड़े ग्रन्थ के अन्त में कोई प्रशस्ति नहीं दी और न अपने गच्छ के आचार्य का नामोल्लेख ही किया है। मालूम होता है कि विजयसेन सूरिजी के पट्ट पर विजयदेव सूरिजी के विरोध में नया प्राचार्य स्थापित करने से तपागच्छ की परम्परा में जो गच्छभेद हुआ था उस समय की यह कृति है। उस समय तपागच्छ के अधिकांश गीतार्थ श्रमण वर्ग नये आचार्य के पक्ष में उतर गया था, परन्तु उपाध्याय यशौविजयजी तथा इनके गुरु आदि अन्त तक आचार्य विजयदेव सूरिजी के ही अनुयायी रहे । सम्भव है ऐसे मतभेद के समय में अपनी कृति में किसी आचार्य का उल्लेख कर खुल्ला न पड़ने की भावना से आपने ग्रन्थ के अन्त में प्रशस्ति भी नहीं लिखी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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